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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5
दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि भव्यात्मनां विभवसंभवभूरिहेतु: दुग्धाब्धिफेनधवलोज्ज्वलक्टकोटीनद्धध्वजप्रकरराजिविराजमानम् ।। दृष्टं जिनेन्द्र भवनं भुवनैकलक्ष्मीधामद्धिद्धितमहामुनिसेव्यमानम् । विद्याधरामरबधूजनमुक्त दिव्यपुष्पांजलिप्रकरशोभितभूमिभागम् ।। दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवनादिवासविख्यातनाकगणिकागणगीयमानम् । नानामणिप्रचयभासुररश्मिजालव्यालीढनिर्मलविशालगवाक्षजालम् ।। दृष्टं जिनेन्द्रभवनं सुरसिद्धयक्षगंधर्वकिन्नरकरापितवेणुवीणा । संगीतमिश्रितनमस्कृतधीरनादरापूरिताम्बरतलोरुदिगन्तरालम् ।। दृष्टं मयाद्य मणिकांचनचित्रतंगसिंहासनादिजिनबिंबविभूतियुक्तम् । चैत्यालयं यदतुलं परिकीतितं मे सन्मगलं सकलचंद्रमुनीन्द्रवन्धम् ।।
मध्यकालीन जैन मंदिर कलाओं का केंद्र था तथा उसमें इस प्रकार की सामाजिकसांस्कृतिक गतिविधियाँ चलती थीं जिनका उद्देश्य गहस्थ को असत्य से सत्य की ओर. अण सत्य से महत सत्य की ओर तथा अंततः श्रावक के जीवन के अंतिम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की ओर ले जाना था।
मुनीश चन्द्र जोशी
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