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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5
समसामयिक ब्राह्मण्य मूर्तिकला के समान इस युग की जैन कला की स्थिति पृथक् नहीं जान पड़ती। उसका संबंध मंदिर-स्थापत्य से बहुत निकट का था। अतएव किसी भी प्रकार के मूर्ति-विधान का उद्देश्य, अपनी संस्कारगत तथा मूर्तिकला-विषयक स्थिति के होते हुए भी, मंदिर-स्थापत्य के रचनात्मक स्वरूप में विलीन होकर स्थापत्य-कला के विकास में योगदान करना ही था। जैन मंदिर में, जो तीर्थंकर द्वारा अधिष्ठित विश्व का प्रतीक था, विश्व-जीवन के विविध क्षेत्रों तथा पक्षों की प्रतिनिधि
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रेखाचित्र 17. कंकाली-टीला : किसी राजा का धड़ (स्मिथ के अनुसार)
मतियों का अंकन होता है। इस प्रकार मंदिर का उपयोग सुख के स्रोत, सदा प्रतीक तथा अपनी निर्माणात्मक एवं मूर्ति-तक्षण-विषयक उत्कृष्टता सहित कीति एवं महान् समारोहों के स्मारक के रूप में था। मुनि सकलचंद्र के दृष्टाष्टक-स्तोत्र में यह विचार बड़े सुंदर ढंग से व्यक्त किया गया है :
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