________________
अध्याय 20 ]
उत्तर भारत
यहाँ यह उल्लेख करना ग्रप्रांसगिक नहीं होगा कि लघु श्राकृतिवाले अनुचरों की प्राकृतियों सहित या उनसे रहित कायोत्सर्ग - मुद्रा में तीर्थंकर मूर्तियाँ अन्य अलंकृत एवं आसीन मूर्तियों की अपेक्षा उनके वीतराग - श्रादर्श ( चित्र १५२ ) के अधिक अनुरूप हैं। अधिकांशतः उष्णीश अतुंग और लघु हैं ( चित्र १५३ ) और परवर्ती प्रतिमाओं में (जिनकी तिथि लगभग बारहवीं शताब्दी है ) शरीर के अंकन में कोणीयता अधिक परिलक्षित होती है । प्रासीन तीर्थंकर प्रतिमाओं के अलंकृत आसन के नीचे झूलता वस्त्र या तो अर्धवर्तुलाकार है या दीर्घवृत्ताकार । वह सिंहासन के ऊपरी भाग को या तो पूरा या मात्र उसके बीच के भाग को अनेक प्रकार के अलंकरणों से प्रावृत करता है ।
वृक्षों और पौधों का भी, जिनमें कमलपुष्प भी सम्मिलित हैं, अंकन यद्यपि रुढ़िबद्ध है फिर भी नयनाभिराम है । इसी प्रकार सिंह को छोड़कर अन्य पशुओं का अंकन भी सजीव एवं आकर्षक है । जहाँ तक व्यावहारिक कला का संबंध है इस युग के प्रचलित कला-प्रतीकों में समचतुर्भुज अलंकरण, घट-पल्लव, श्रृंखला-घण्टिका, लता-गुल्म, कलापिण्ड और अर्ध-कलापिण्ड सम्मिलित हैं ।
इस युग की भारतीय कला के कुछ सुंदर नमूने, उदाहरणतः बीकानेर क्षेत्र की सरस्वती की आकृतियाँ तथा प्रोसिया का अलंकृत तोरण, जैन मूर्तिकारों की ही रचनाएँ थीं। इन दोनों ही उदाहरणों में, यद्यपि उनका अंकन प्रौपचारिक ही है, आवश्यक मात्रा में विवरण की यथार्थता और उससे संबद्ध अलंकरण प्रदर्शित हैं । संगमरमर से निर्मित बीकानेर की वाग्देवी ( चित्र १५४ ) में उदात्तता की महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। मूर्ति निर्माण संबंधी समस्त प्राचुर्य के होते हुए भी उसमें कोमलता और संवेदनशीलता की भावना विद्यमान है । यह मूर्ति राजस्थानी और गुजराती शैलियों के सुमिश्रण का परिणाम प्रतीत होती है । प्रोसिया स्थित देवकुलिकाओं के बाहर अंकित प्राकृतियाँ भी मूर्ति निर्माण की मिश्र शैली का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। एक और सुंदर उदाहरण कंकाली-टीला (मथुरा) से प्राप्त शीर्षहीन नर ( किसी राजा) की आकृति है, जिससे पश्चिमी मध्यदेश में चंदेल - कला का और अधिक प्रभाव स्पष्ट हो जाता है (रेखाचित्र १७ ) | श्रावस्ती से प्राप्त आदिनाथ की एक प्रतिमा तथा प्रयोध्या (फैजाबाद) 1 में मिली एक और प्रतिमा एवं मथुरा से प्राप्त विक्रम संवत् ११३४ अर्थात् १०७७ ई० की एक तीसरी प्रतिमा ( रेखाचित्र १८ ) भी गंगा घाटी की मध्यकालीन मूर्ति-निर्माण-परंपरा के अध्ययन के लिए ध्यातव्य है ।
यह शैलीगत अंतमिश्रण का युग था, जैसा कि समसामयिक मंदिर स्थापत्य से स्पष्ट है । चाहमान क्षेत्र में, यहाँ तक कि सूदूर हरियाणा में भी, जो मूर्ति-निर्माण-परंपरा प्रचलित थी, वह गुर्जरमूल की थी, जबकि गंगा-यमुना घाटी में वह चेदि - चंदेल - कला - शैली की थी । राजस्थान के दक्षिणी सीमांत क्षेत्रों में परमार कला का सीमित प्रभाव भी देखा जा सकता है। जो भी हो, गाहड़वालकालीन मूर्तियों में गंगा-यमुना घाटी की पूर्ववर्ती परंपरा की कुछ विशेषताएँ रह गयी हैं, किन्तु मध्यदेश की अधिकांश प्रतिमाएँ रूढ़िबद्ध एवं कम आकर्षक हैं ।
1 भट्टाचार्य, पूर्वोक्त, चित्र 1 तथा 4.
Jain Education International
259
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org