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वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5
इन मूर्तियों में तीर्थंकर, विद्यादेवियाँ, अप्सराएँ, दिग्पाल आदि सम्मिलित हैं । स्थापत्य की दृष्टि से इन देवकुलिकाओं पर पर्याप्त गुर्जर प्रभाव है। इनसे भी प्राचीन मूर्तियों में अब भी प्राचीन राजस्थानी (मारु) शैली की विशेषताएँ पायी जाती हैं ( चित्र १४३ ) |
सन् १०१५ में निर्मित अलंकृत तोरण में प्रचुर संख्या में मूर्तियों से युक्त दो स्तंभ हैं, जो एक महापीठ पर बनाये गये हैं । इनपर पश्चिम भारतीय प्रकार की विशेष गोटें हैं, जिनमें गज-स्तर और नर-स्तर सम्मिलित हैं और वे सरदल को आधार प्रदान करते हैं ( चित्र १४४) । सरदल पर बेलबूटे तथा अन्य अलंकरण - प्रतीक उत्कीर्ण हैं । उसपर धारीदार चंदोबा है और उसके सबसे ऊपर केंद्र में एक त्रिकोण तिलक है जिसमें तीर्थंकर की प्रतिमा और उसके दोनों ओर एक अलंकृत चौखटे के भीतर मोर उत्कीर्ण हैं । इस चौखटे के पार्श्व में प्रत्येक और एक-एक गौण तिलक भी उत्कीर्ण है। स्तंभ-दण्डों पर सीधी अलंकृत धारियाँ उत्कीर्ण हैं जिनमें तीर्थंकरों एवं विद्याधरों की मूर्तियाँ अंकित हैं । इस युग में तोरणों को मुख्य भवन का महत्त्व बढ़ानेवाले साधन के रूप में माना जाता था । सन् ११६६ के एक राजस्थानी शिलालेख में मंदिर को उत्तुंग - तोरण- प्रासाद कहा गया है ।
इस प्रकार उक्त महावीर मंदिर प्रतीहार से चाहमान युग तक की जैन मंदिर निर्माण शैली के विकास क्रम का उदाहरण प्रस्तुत करता है । इस संबंध में ढाकी' का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है : "इस प्रोसिया मंदिर समूह का योगदान जैन कला और स्थापत्य के अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह उसका प्रारंभिक सीमा-चिह्न होने के साथ ही हमें कला कौशल की महत्त्वपूर्ण जानकारी देता है। मुख्य मंदिर जो महामारु स्थापत्य का सुदंर नमूना है, जैन शैली के त्रिक-मण्डप या मुख-मण्डप का प्राचीनतम उदाहरण प्रस्तुत करता है । मंदिर अलंकरण - शैली के परिप्रेक्ष्य में जैन मूर्ति संबंधी उसकी अतिशय समृद्धि अबतक ज्ञात मंदिरों में सब से प्राचीन है। स्वयं देवकुलिकाएँ ही स्थापत्य की सर्वोत्कृष्ट लघु कृतियाँ हैं और वे विकासाधीन पश्चिमी शैली के और अधिक विकास की जानकारी देती हैं । इसके साथ ही वे जैन मूर्तिकला में हुई उन्नति का भी उदाहरण प्रस्तुत करती हैं । इस तथ्य से कि वे आठवीं शताब्दी में नहीं बनायी जाती थीं और वे संख्या में कम हैं तथा प्रत्यक्ष ही निर्मित हैं, सम्मिलित रूप में नहीं, यह आभास हो सकता है कि मंदिर - विन्यास की जैन शैली आठवीं शताब्दी में अज्ञात थी और ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में भी उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था क्योंकि वह मूल विन्यास से बेमेल है । जैन मंदिरों की गौरव कृति, रंग- मण्डप ( नृत्य-भवन ) का भी अभी प्रादुर्भाव नहीं हुआ था ।"
संभवतः बारहवीं शताब्दी के लगभग मुख्य मंदिर के आसपास देवकुलिकाओं का निर्माण कर उसके सौंदर्य एवं महत्ता को बढ़ाने की पद्धति राजस्थान के जैनों में बहुत लोकप्रिय हो गयी थी, जैसा कि बिजोलिया (प्राचीन विंध्यावली ) के एक शिलालेख से ज्ञात होता है । इस पुरालेख में यह उल्लिखित
1 वही, पृ 326-27.
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