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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5 विग्रहराज-चतुर्थ ने न केवल अपनी राजधानी में एक जैन मठ का निर्माण कराया अपित अपने विशाल राज्य में मास के कुछ विशेष दिनों में पशुओं के बध का भी निषेध कर दिया था। रविप्रभ रचित धर्मघोष-सूरि-स्तुति के अनुसार अरिसिहा (शर्मा के सुझाव के अनुसार मेवाड़ का संभवतः अरिसिंह) तथा मालवा के एक शासक ने अजमेर के एक जैन मंदिर राज-विहार पर पताका फहराने में उसकी सहायता की थी। बिजोलिया2 स्थित पार्श्वनाथ-मंदिर को पृथ्वीराज-द्वितीय ने एक गाँव दान में दिया था। अर्णोराज के पुत्र सोमेश्वर ने भी बिजोलिया स्थित जैन मंदिर को एक ग्राम दान किया था । पृथ्वीराज-तृतीय ने विक्रम संवत् १२३६ (११८२ ईसवी) में जिनपति-सूरि को एक जयपत्र प्रदान किया था तथा जैन धर्मावलंबियों को अनेक उत्तरदायी पदों पर नियुक्त भी किया था।
नादोल के चाहमान, जो गुजरात के चौलुक्यों (सोलंकियों) के अधिक निकट थे, जैन धर्म के प्रति अधिक अनुरक्त थे। चाहमानों की नादोल शाखा के अश्वराज ने, जो स्वयं जैन था, कुछ निर्दिष्ट दिनों में पूर्णरूपेण अहिंसा के पालन के लिए आदेश जारी किये थे। अश्वराज के समय के सेवड़ी के १११० ई० के एक शिलालेख में यह उल्लेख है कि महासहनीय उप्पलर्क ने धर्मनाथदेव के दैनिक पूजन के लिए चार ग्रामों में अवस्थित अरहटवाले प्रत्येक कुएं से एक हारक के बराबर दान किया था। इसी स्थान के १११५ ई० के एक अन्य शिलालेख में यह उल्लेख है कि राजा कटुकराज ने शिवरात्रि के अवसर पर यशोदेव के खत्तक में शांतिनाथ के पूजन के लिए दान दिया था। सन् ११३२ में राजा रायपाल के पुत्रों तथा रानी ने राजपरिवार के अपने भाग में से प्रत्येक कोल्ह से तेल की एक निश्चित मात्रा दान की थी। नादलोई के सन् ११३८ के एक शिलालेख में भी यह वर्णित है कि इस शहर में आने
और बाहर जानेवाले व्यापारिक माल पर लगाये कर का बीसवाँ भाग नेमिनाथ के पूजन के लिए दान-स्वरूप दिया जाता था। सन् ११५२ के शिवरात्रि-दिवस पर अल्हणदेव ने अमारी-घोषणा (पशुओं का बध नहीं करने की घोषणा) की थी तथा ब्राह्मणों, पुरोहितों एवं मंत्रियों को भी इस राजादेश का सम्मान करने की आज्ञा दी गयी थी। इस वंश के शासक ब्राह्मण धर्म के देवताओं, यथा सूर्य, ईशान
आदि की पूजा करते थे किन्तु ब्राह्मणों के साथ ही साथ जैन मंदिरों एवं प्राचार्यों का भी सम्मान करते थे। सहिष्णुता की यह भावना इस युग में सामान्यतः साधारण जनों ने भी अपनायी थी, यद्यपि कभी-कभी विभिन्न धर्मों के प्राचार्यों में शास्त्रार्थ तथा संघर्ष हो जाया करते थे।
कन्नौज तथा वाराणसी के गाहड़वाल शासकों के संबंध में भी यही बात चरितार्थ होती है। यद्यपि जैन समाज और धर्म के प्रति उनके दृष्टिकोण के बारे में हमारे पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं
1 वही, पृ 62. 2 तज्ज्येष्ठ भ्रातृपुत्रोऽभूत् पृथ्वीराजः पृथुपमः ।
तस्मादज्जितहेमाङ्गो हेमपर्वतदानतः ।। अतिधर्मरतेनापि पाश्वनाथ-स्वयंभुवे । दत्तं मोराझरीग्रामं भुक्तिमुक्तेश्च हेतुना ॥
एपिग्राफिया इण्डिका. 26; 1952; 105.
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