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वास्तु -स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई०
[ भाग 4
लायी जाती रहीं; जैसाकि इस काल में प्रतिमाओं की अभिवृद्धि, ईंटों द्वारा भवन-निर्माण और वट्ट जुत्त तथा तमिल लिपियों के शिलालेखों से प्रमाणित होता है। इसके अतिरिक्त अन्य गुफाएँ और शैलाश्रय जैनाचार्यों और साधुओं के द्वारा आवासित पल्ली के रूप में उपयोग में आते रहे; जिसकी साक्षी हैं शिलामुखों पर उत्कीर्ण और अन्य स्वतंत्र-उद्भुत प्रतिमाएँ। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं किन्तु यहाँ केवल अति-विशिष्ट और प्रख्यात कृतियों का ही उल्लेख किया गया है । तथापि, यह कहना पडेगा कि दिगंबर जैन सामग्री के समृद्ध भण्डार का अध्ययन और क्रमबद्ध प्रतिमा-वैज्ञानिक सर्वेक्षण तमिलनाडु में होना अभी शेष है।
कन्याकुमारी जिले में चितराल के समीप तिरुच्चारणत्तुमल से प्राप्त प्रतिमाओं का वर्णन इसी अध्याय में आगे किया गया है।
शैलोत्कीर्ण और स्वतंत्र दोनों ही प्रकार के निम्न-उद्धृतों के अतिरिक्त कुछ विशेष मूर्तियाँ भी उपलब्ध हुई हैं। आंध्रप्रदेश में कुड्डपह जिले के दानवलपडु के भग्न मंदिर से कुछ प्रतिमाएं मद्रास राज्य के संग्रहालय में लायी गयी थीं, वे काले प्रस्तर पर राष्ट्रकूट-कला के सुंदर उदाहरण हैं। तिरुनेलवेलि जिले के तूतीकोरिन की महावीर स्वामी की प्रतिमा ग्रेनाइट पर पाण्ड्य-कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। एक मीटर से अधिक ऊँचाई की आसनस्थ तीर्थंकर की प्रतिमा पुट्टम्बर (पुडुक्कोट्ट-तिरुच्चिरापल्ली जिला) के एक टीले पर ईंटों के मंदिर के भग्नावशेष से उपलब्ध हुई है जो उचित समानुपात का उल्लेखनीय चोल उदाहरण है। पुडुक्कोट्टै संग्रहालय में मोसकुडि से प्राप्त आसनस्थ तीर्थंकर की प्रतिमा ग्रेनाइट से निर्मित एक अति-सामान्य प्रस्तुति है जबकि ग्रेनाइट की ही मंगट्ट वनपट्टी से प्राप्त इसी संग्रहालय की पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग-प्रतिमा का शिल्पांकन कुछ अधिक कलात्मक है।
के० प्रार० श्रीनिवासन
केरल के पुरावशेष
केरल में ऐसे वास्तु-स्मारक कम ही हैं जिनका निर्माण नौंवी से ग्यारहवीं शताब्दियों के मध्य हा। इस अवधि में प्राय शासकों ने दक्षिण में, और चेर शासकों ने मध्य केरल में इस धर्म को संरक्षण प्रदान किया। प्राचीन चेर देश में जैन धर्म का प्रचलन और भी पहले से था क्योंकि इस वंश के कुछ शासकों ने तमिल-संगम-युग में इस धर्म के लिए कार्य किया था। उदाहरण के लिए, तिरुच्चिरापल्ली जिले में करूर के निकटवर्ती पुगलूर में एक शैलाश्रय के ऊपरी भाग पर परनाले के ठीक नीचे लगभग दूसरी शती ईसवी के दो चेर अभिलेख हैं। इन अभिलेखों के अनुसार यह शिला (कल)चेकायपन नामक एक जैन मुनि के हेतु को-पातन चेरल इरुम्पोरै के प्रपौत्र द्वारा उत्खनित (अरुपित) करायी गयी थी। शय्याओं और सिरहानों के पास उत्कीर्ण अभिलेखों में से कुछ में उनके उपयोग-कर्ताओं के
1 एनुअल रिपोर्ट प्रॉन साउथ इण्डियन एपिग्राफी, 1927-28. 1929. मद्रास . क्रमांक 341-49, 4 50./
एनुअल रिपोर्ट प्रॉन इण्डियन एपिग्राफी, 1963-64. 1967. दिल्ली./महादेवन (आइ). कॉर्पस ऑफ द तमिल
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