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अध्याय 19]
दक्षिण भारत दर्शक की दृष्टि-सीमा में समाहित हो सके। ऐसे कोण से देखने पर ही शरीरांगों के उचित अनुपात और कलाकृति की उत्कृष्टता का अनुभव हो सकता है।
आधार के दोनों पार्श्व के प्रस्तर-खण्डों पर उत्कीर्ण तमिल-ग्रंथ, नागरी (प्राचीन मराठी) और कन्नड़-तीन लिपियों के अभिलेखों और अन्यत्र उपलब्ध अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गोम्मटेश्वर का निर्माण गंग नरेश राजमल्ल सत्यवाक्य अथवा राचमल्ल (९७४-६८४ ई०)के मंत्री चामुण्डराय ने सन् ६७८ (चामुण्डराय कृत चामुण्डराय-पुराण की रचना-तिथि जिसमें इस महान् उपलब्धि का उल्लेख नहीं है) के उपरांत कभी कराया था। वैसे इस प्रतिमा की निर्माण-तिथि ९८३ ई० मानी जाती है, यद्यपि अनेक साहित्यिक संदर्भो के आधार पर उसकी पारंपरिक प्रतिष्ठा-तिथि कालचक्रीय विभव वर्ष में चैत्र शुक्ल पंचमी, रविवार, है जो लगभग १०२८ ई. के बराबर होती है। आधार पर उत्कीर्ण एक अभिलेख में भी उल्लेख है कि मूर्ति के चारों ओर चौबीस तीर्थंकरों के मंदिरों के साथ शत्ताल अथवा स्तंभीय चैत्यवास का निर्माण होयसल-नरेश विष्णवर्धन के सेनापति गंगराज ने करवाया था । इस प्रकार, प्रतिमा के पीछे समतल-वितानयुक्त मण्डप के कुछ भाग के निर्माण के लिए, पार्श्व आधारीय शिला के एक बड़े भाग के शीर्ष को, जो बहुतल मण्डप के अंतरिम पार्श्व के रूप में है, काटना पड़ा। मण्डप अंततः विशाल प्रतिमा का प्रमुख आधार बन गया ।
गंग नरेशों की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृति गोम्मटेश्वर बाहुबली के भाई भरतेश्वर की मूर्ति है जो उनके पूर्वाश्रम की स्थिति की है। यह घटना से नीचे टूटी हुई है और लगभग उपेक्षित दशा में खड़ी है। विद्यमान प्रतिमा समभंग-मुद्रा में लगभग तीन मीटर ऊँची है। ललित समानुपात में, इसे भी चंद्रगिरि पहाड़ी के परिसर के पश्चिमी भाग में एक स्थान पर पड़े हुए विशाल शिलाखण्ड को काटकर बनाया गया है। किन्तु दुर्भाग्य से इसके चारों ओर उन पत्थरों के ढेर लग गये हैं जो दर्शनार्थियों द्वारा प्रत्यावर्तित संगीतात्मक ध्वनि सुनने के लिए फेंके गये।
अनेक प्राकृतिक गुफाओं या शैलाश्रयों, परनालों, पालिशदार शय्याओं तथा तमिल-ब्राह्मी अभिलेखों से युक्त पहाड़ियों के अतिरिक्त यहाँ जैन आवास के द्वितीय या परवर्ती चरण की और भी अनेक कृतियाँ हैं जो दक्षिण केरल और तमिलनाडु के जिलों में प्रायः सर्वत्र उपलब्ध हैं । तमिलब्राहमी अभिलेखों के अभाव में उनमें अधिकांशतः तमिल लिपि और भाषा के अभिलेख अन्य संगतियों के साथ हैं, जिनमें बहुधा जैन प्रतिमाएँ या तो शिलामुखों पर उत्कीर्ण प्रतिमाओं के रूप में हैं या फिर पृथक् उथले उरेखन के रूप में। उनमें से कुछ में प्रांतरिक परिवर्धन दिखाई पड़ता है, यथा-- तोरणाकार रचना और ईंट-निर्मितियों के अवशेष । चित्रांकन भो द्रष्टव्य है। इस प्रकार के आवास और पुनः उपयोग के साक्ष्य परवर्ती चरण की पूर्वकालिक गुफाओं और शैलाश्रयों में भी पाये जाते हैं, जो परवर्ती काल तक उनके निरंतर प्रयोग की पुष्टि करते हैं।
1 [ब्राह्मी अभिलेखों और शैलोत्कीर्ण शय्याओं से युक्त प्रारंभिक प्राकृतिक गुफाओं के लिए द्रष्टव्य : अध्याय 9
-संपादक.]
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