________________ प्रथम संस्करण से स्वकथनम् जन्म और मृत्यु, जीवन के दो अभिन्न किनारे हैं। जन्म स्वर्णिम भविष्य की संभावनाओं भरी आहट है और मृत्यु जीवन का अंतिम आलेख। जीवन का अपना एक सहज प्रवाह है। उस रौ में बहकर जीना महानता का सूचक नहीं हो सकता। सबसे हटकर, प्रवाह के विरोध में जाकर ही जीवन को स्वर्णिम दस्तावेज बनाया जा सकता है। जीवन का अर्थ ही है- जानबूझकर प्रतिकूलता में जाना और प्रसन्नता को वैसा का वैसा बनाये रखना। कोरी अनुकूलता और सुखशीलता का जीवन सफलता का लक्षण नहीं हो सकता। उसे तो सामान्य पुरूष भी जी सकता है। 1 महान और विराट व्यक्तित्व का लक्षण यदि सरल शब्दों में कहा जाये तो वे कार्य नहीं करना, जो सारी दुनिया करती है। तो क्या खाना-पीना, उठना-बैठना, हँसना-रोना आदि क्रियाओं को छोड़ दिया ___जाये? नहीं ! मेरे कथन का अभिप्राय यह नहीं है, प्रत्युत उन प्रवृत्तियों को छोड़ने से है, जिनसे जीवन का पैमाना ही गिर जाये। क्षमा, मृदुता, आत्म-निरीक्षण, समय-प्रबन्धन, सद्भावना, नैतिकता, ये वे पैमाने हैं जो जीवन को ऊँचा उठाते हैं और छल-कपट, संग्रह, स्वार्थ, अविश्वास जीवन को नीचे गिराने वाले पैमाने हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे प्रतिस्रोत और प्रतिकूलता में जाकर के ही हुए हैं। सोने को चमकने के लिये अग्नि-परीक्षा से गुजरना ही होता है। हम जन्म से अन्तिम श्वास तक मृगछोने की भाँति भौतिक सुखों के पीछे भागते हैं, ___ महापुरूष उन्हें व्यर्थ और बोझ समझकर पहले ही छोड़ देते हैं। हम जिन रास्तों को बीहड़, अनजान और दुर्गम समझकर छोड़ देते हैं, महापुरूष , हजार कष्ट सहते हुए भी उस राह पर चल पड़ते हैं और अपने लक्ष्य को साध लेते हैं।