________________ महावीर जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने कठिनाइयों को झेला, कष्टों की आग में स्वयं को तपाया तभी तो निखरकर जगत के सम्मुख प्रस्तुत हुए और प्रेरणा की ऊँची मीनार बन गये। जैन धर्म की यह मौलिक अवधारणा है कि व्यक्ति जो कुछ बनता है, अपने प्रयत्नों से बनता है। हाँ ! निमित्त कोई भी हो सकता है। मनुष्य यदि प्रच्छन्न व सुषुप्त शक्तियों को जगाकर उनका सम्यक नियोजन करे तो अवश्य ही सिद्धि के चरम शिखर को छू सकता है पर पुरूषार्थ तो स्वयं को ही करना पड़ेगा। कोई भी ईश्वर या पुरूष सिद्धि के द्वार नहीं खोल सकता। वे रास्ता दिखा सकते हैं। चलना सीखा सकते हैं। रास्ते में उजाला कर सकते हैं पर चलना तो स्वयं को ही होगा। हम यदि आगे बढ़कर धक्का लगाये तो सफलता और शान्ति के द्वार स्वयमेव उद्घाटित हो जाते हैं। हमारा जीवन ठीक बांसुरी जैसा है। बांसुरी भीतर से रिक्त और शून्य होने पर भी अपूर्व माधुर्य और संगीत से परिपूर्ण है। यह तो बजाने वाले पर निर्भर करता है कि वह उससे सुरीली स्वरलहरियाँ छेड़ता है या शोर शराबा करता है। जन्म से ज्यादा मूल्यवान जीवन है और जीवन से ज्यादा मूल्यवान जीवन-कला है। इसलिये जीवन की लम्बाई पर कम और गहराई पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये। जिन्दगी एक कहानी जैसी है। कहानी की लम्बाई नहीं अपितु उसकी सरसता और सजीवता विचारणीय होती है। लम्बे समय तक धआँ करने की बजाय अगरबत्ती बनकर थोडी देर सगन्ध बिखेरना अच्छा है। मोमबत्ती थोड़ी देर ही जलती है पर उतना जलना भी सार्थक है क्योंकि प्रकाश तो फैलाती है। फूल ज्यादा देर नहीं खिलता पर कुछ समय के लिये ही सही, वातावरण को खुशनुमा तो बनाता है। जयद्रथ की अपेक्षा अभिमन्यु ने और सोमिल की अपेक्षा गजसुकुमाल ने कम उम्र पायी थी फिर भी वे अपने श्रेष्ठ आचरण से आदर्श के स्तूप बन गये। इसलिये जीवन 'कितना जीये' इस सोच से कैसे जीये' यह सोच बेहतर है। लम्बे जीवन की कोई अपेक्षा नहीं है। यदि छोटा पर अच्छा जीवन जीया जाये तो निश्चित ही अपनी क्षमताओं का उच्चतम प्रयोग करके श्रेष्ठताओं को साकार , रुप दिया जा सकता है।