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हो जाता है। जैन दर्शन में आत्म-विशुद्धि का मापन गुणस्थान के आधार पर किया गया है। यह तलहटी से शिखर की यात्रा है।
जीवन का लक्ष्य क्या है ? इसका चयन और निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है। जन्म लेना पर्याप्त नहीं। यह तो जीवन का आरंभ बिन्दु है। उसमें संभावनाएं हैं, पर पूर्णता नहीं। पूर्णता की दिशा में प्रस्थान ही वास्तविक विकास की शुरुआत है।
जीवन का लक्ष्य जीवन से हटकर नहीं हो सकता। जीवन के सम्बन्ध में दो दृष्टियां हमारे समक्ष हैं-जैविक दृष्टि और आध्यात्मिक दृष्टि। जैविक दृष्टि से जीवन सदा परिवेश के प्रति क्रियाशील है। यह क्रियाशीलता मात्र संतुलन बनाये रखने के लिये है। संतुलन बनाये रखने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है। विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्त्व के प्रति संघर्ष (Struggle for Existence) कहा है। जीवन का अर्थ ही समायोजन या संतुलन का प्रयास है।
अध्यात्म शास्त्र के अनुसार जीवन न तो जन्म है, न मृत्यु। जीवन एक प्रवाह है। जन्म आदि है। मृत्यु अंत । जीवन इन दोनों से ऊपर है। जन्म-मृत्यु तो आत्मा के आगमन और गमन की सूचना मात्र हैं। जीवन जागृति है। चेतना है। वही आत्मा है। . आत्मा की पूर्णता ही जीवन का परम साध्य है। अपूर्णता का बोध पूर्णता की उपलब्धि का संकेत है। उपलब्धि नहीं। दूध में प्रतीत होनेवाली स्निग्धता उसमें निहित मक्खन की सूचना है। प्राप्ति नहीं। मक्खन पाने के लिये प्रयत्न आवश्यक है। वैसे ही पूर्णता की प्राप्ति के दो साधन हैं-संवर और निर्जरा।
जैन तत्त्व-मीमांसा के अनुसार संवर का अर्थ है-कर्मों के आगमन का निरोध। निर्जरा द्वारा समस्त प्राचीन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो शुद्धावस्था है, वही मोक्ष है।
बन्धन-मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्याय दृष्टि से है। आत्मा की वैभाविक अवस्था बंधन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है। बंधन, मुक्ति दोनों चेतना की ही दो अवस्थाएं हैं। संपूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक एवं निरन्वय विनाश ही मोक्ष है।
-सत्तरह