Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बर - दोनों परम्पराओं में पंच स्थावर की अवधारणा दृढ़ीभूत हो गयी । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जब वायु और अग्नि को समाना जाता था, तब द्वीन्द्रियादि त्रसों के लिए उदार (उराल) त्रस शब्द का प्रयोग होता था, पहले गतिशीलता की अपेक्षा से त्रस और स्थावर का वर्गीकरण होता था और उसमें 'वायु और अग्नि में गतिशीलता मानकर उन्हें त्रस माना जाता था । वायु की गतिशीलता स्पष्ट थी, अतः सर्वप्रथम उसे त्रस कहा गया। बाद में सूक्ष्म अवलोकन से ज्ञात हुआ कि अग्नि भी ईंधन के सहारे धीरे-धीरे गति करती हुई फैलती जाती है, अतः उसे भी त्रस कहा गया ।
जल की गति केवल भूमि के ढलान के कारण होती है, स्वतः नहीं, अतः उसे पृथ्वी एवं वनस्पति के समान स्थावर ही माना गया । किन्तु वायु और अग्नि में स्वतः गति होने से उन्हें त्रस माना गया । पुनः, जब आगे चलकर द्वीन्द्रिय आदि को ही त्रस और सभी एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर मान लिया गया, तो पूर्व आगमिक वचनों से संगति बैठाने का प्रश्न आया, अतः श्वेताम्बर परम्परा में यह माना गया कि लब्धि की अपेक्षा से तो वायु एवं अग्नि स्थावर हैं, किन्तु गति की अपेक्षा से उन्हें त्रस कहा गया है । दिगम्बर - परम्परा में धवला टीका ( 10वीं शती) में इसका समाधान यह कहकर किया गया कि वायु एवं अग्नि को स्थावर कहे जाने का आधार उनकी गतिशीलता न होकर स्थावर - नामकर्म का उदय है । दिगम्बर- परम्परा में ही कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने यह समन्वय निश्चय और व्यवहार के आधार पर किया है । वे लिखते हैं- पृथ्वी, अप और वनस्पति- ये तीन स्थावर - नामकर्म के उदय से स्थावर कहे जाते हैं, किन्तु वायु और अग्नि पंच स्थावर में वर्गीकृत किये जाते हुए भी चलन - क्रिया दिखाई देने से व्यवहार से स कहे जाते हैं। वस्तुतः यह सब प्राचीन और परवर्ती ग्रन्थों में जो मान्यताभेद आ गया था, उससे संगति बैठाने का एक प्रयत्न था ।
जहाँ तक जीवों के विविध वर्गीकरणों का प्रश्न है, निश्चय ही वे सब वर्गीकरण ई. सन् की दूसरी-तीसरी शती से लेकर दसवीं शती तक की कालावधि में स्थिर हुए है। इस काल में जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान आदि अवधारणाओं का विकास हुआ है। भगवती जैसे अंग आगमों में जहाँ इन विषयों की चर्चा है, वहाँ प्रज्ञापना आदि अंगबाह्य ग्रंथों का निर्देश हुआ है। इससे स्पष्ट है कि ये विचारणाएँ ईसा की प्रथम द्वितीय शती के बाद ही विकसित हुई। ऐसा लगता है कि प्रथम अंग बाह्य आगमों में उनका संकलन किया गया है और फिर माथुरी एवं वल्लभी वाचनाओं के समय उन्हें अंग आगमों में समाविष्ट कर इनकी विस्तृत विवेचना को जैन तत्त्वदर्शन
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