Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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यह स्पष्ट है कि षट्जीवनिकाय की अवधारणा जैन-दर्शन की प्राचीनतम अवधारणा है। प्राचीन काल से लेकर यह आज तक यथावत रूप से मान्य है। तीसरी शताब्दी से ईसा की दसवीं शताब्दी के मध्य इस अवधारणा में वर्गीकरण संबंधी कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर अन्य कोई मौलिक परिवर्तन हुआ हो- ऐसा कहना कठिन है। इतना स्पष्ट है कि आचारांग के बाद सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रृतस्कन्ध के जीव संबंधी अवधारणा में कुछ विकास अवश्य हुआ है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार, जीवों की उत्पत्ति किस-किस योनि में होती है तथा जब वे एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करते हैं, तो अपने जन्म-स्थान में किस प्रकार आहार ग्रहण करते हैं, इसका विवरण सूत्रकृतांग आहारपरिज्ञा नामक द्वितीय श्रुतस्कंध में . है। यह भी ज्ञातव्य है कि उसमें जीवों के एक प्रकार को ‘अनुस्यूत' कहा गया है। संभवतः इसी से आगे जैनों में अनन्तकाय और प्रत्येक वनस्पति की अवधारणाओं का विकास हुआ है। दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीवों में किस वर्ग में कौन से जीव हैं, यह भी परवर्ती काल में ही निश्चित हुआ, फिर भी भगवती, जीवाजीवाभिगाम, प्रज्ञापना के काल तक, अर्थात् ई. की तीसरी शताब्दी तक यह अवधारणा विकसित हो चुकी थी, क्योंकि प्रज्ञापना में इन्द्रिय, आहार और पर्याप्ति आदि के संदर्भ में विस्तृत विचार होने लगा था।
ईसवीं सन् की तीसरी शताब्दी के बाद षट्जीवनिकाय में त्रस स्थावर के वर्गीकरण को लेकर एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। आचारांग से लेकर तत्त्वार्थसूत्र के काल तक पृथ्वी, अप और वनस्पति को स्थावर माना जाता था, जबकि अग्नि, वायु और द्वीन्द्रिय आदि जीवों को त्रस कहा जाता था। उत्तराध्ययन का अन्तिम अध्याय, कुन्दकुन्द का पंचास्तिकाय और उमास्वामी का तत्त्वार्थसूत्र स्पष्ट रूप से पृथ्वी, अप और वनस्पति को स्थावर और अग्नि, वायु और द्वीन्द्रिय आदि को त्रस मानता है। द्वीन्द्रिय आदि को त्रस मानने की परम्परा का विकास हुआ, यद्यपि कठिनाई यह थी कि अग्नि और वायु में स्पष्टतः गतिशीलता देखे जाने पर उन्हें स्थावर कैसे माना जाय? प्राचीन आगमों में जहाँ पाँच एकेन्द्रिय जीवों के साथ-साथ त्रस का उल्लेख है, वहाँ उसे त्रस और स्थावर का वर्गीकरण नहीं मानना चाहिये, अन्यथा एक ही आगम में अन्तर्विरोध मानना पड़ेगा, जो समुचित नहीं है। इस समस्या का मूल कारण यह था कि द्वीन्द्रिय आदि जीवों को त्रस नाम से.अभिहित किया जाता था, अतः यह माना गया कि द्वीन्द्रिय से भिन्न सभी एकेन्द्रिय स्थावर हैं। इस चर्चा के आधार पर इतना तो मानना होगा कि लगभग छठवीं शताब्दी के पश्चात् ही त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की धारणा में परिवर्तन हुआ तथा आगे
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान