Book Title: Jain Agamo me Parmatmavada
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 10
________________ स्वय ही अपना प्रभाव डाल देती है, वैसे हो कर्म-परमाणु जोव को स्वत ही अपने प्रभाव से प्रभावित कर डालते है। परमात्मा का उसके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नही है । कर्मफल पाने के लिए जोव को परमात्मा के द्वार नह। खटखटाने पडते है । जीव सर्वथा स्वतत्र है, किसी भी दृष्टि से वह परमात्मा के अधीन नही है । सक्षेप मे कह सकते है राम किसी को मारे नहीं, मारे सो नही राम । आप ही आप मर जायेगा, करके खोटा काम ।। जनदर्शन की आस्था है कि जीव अपने भाग्य का स्वय निर्माता है, स्वर्ग, नरक मनुष्य की सद्-असद् प्रवृत्तियो का परिणाम है। अपनी नय्या को पार करने वाला भी जीव स्वय ही है और उसे डुबोने वाला भी वह स्वय ही है । इस मे परमात्मा का कोई सम्बन्ध नही है । ऊपर की पक्तियो मे यह स्पष्ट हो गया है कि ईश्वर शब्द वैदिक दर्शन का अपना एक पारिभाषिक शब्द है, जैनदर्शन मे उस के लिए कोई स्थान नहीं है। वैदिकदर्शन मे ईश्वर शब्द की जो परिभाषा व्यक्त की गई है, जैनदर्शन उस पर कोई आस्था नही रखता है । जैनदर्शन तो सर्वोत्तम और सर्वथा निष्कर्म दशा को प्राप्त आत्मा को ही परमात्मा या सिद्ध या बुद्ध आदि शब्दो के द्वारा प्रकट करता है। ऐसी निष्कर्म आत्मा को वह वैदिक सम्मत ईश्वर के नाम से कभी व्यवहृत नही करता है। ईश्वर शब्द की व्यापकताईश्वर शब्द की ऐतिहासिक अर्थविचारणा पर विचार करते हुए मालूम होता है कि वैदिकदर्शन के यौवनकाल मे

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