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कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास
कृष्ण नहीं कहेंगे यह; मैं भी नहीं कहूंगा। मैं कहता हूं, कंकड़-पत्थर फेंकने की उतनी फिक्र मत करो। हीरे-जवाहरात मौजूद हैं, उनको देखने की फिक्र करो। जैसे ही वे दिखाई पड़ेंगे, कंकड़-पत्थर हाथ से छूट जाएंगे, छोड़ने नहीं पड़ेंगे। और उनके दिखाई पड़ने पर जीवन में जैसे कि बिजली कौंध गई हो, ऐसे आनंद की लहर दौड़ जाएगी।
संन्यासी अगर आनंदित नहीं है, आह्लादित नहीं है, नाचता हुआ नहीं है, प्रफुल्लित नहीं है, तो संन्यासी नहीं है।
लेकिन वैसा संन्यासी, सिर्फ कृष्ण जो कहते हैं, उस तरह से हो सकता है। कर्म को छोड़ा कि आप उदास हुए; क्योंकि आपके जीवन की जो ऊर्जा है, जो एनर्जी है, वह कहां जाएगी ! उसे प्रकट होना चाहिए, उसे अभिव्यक्त होना चाहिए। अगर हम किसी झाड़ पर पाबंदी लगा दें कि तू फूल नहीं खिला सकेगा; बंद रख अपने फूलों को ! तो झाड़ बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा, क्योंकि ऊर्जा का क्या होगा ?
ऐसे ही वह आदमी मुश्किल में पड़ जाता है, जो कर्म को छोड़ देता है; जीवन को छोड़कर भाग जाता है। प्रकट होने का उपाय नहीं रह जाता। सब झरने भीतर बंद हो जाते हैं; भीतर ही घूमने लगते हैं; विक्षिप्त करने लगते हैं । चित्त को ग्लानि और उदासी से भर जाते हैं; अनंत अपराधों से भर जाते हैं, पश्चात्तापों से भर जाते हैं। और फिर, फिर वही वासनाएं वापस मन को खींचने लगती हैं, क्योंकि उनका कोई तो अंत नहीं हुआ है।
कृष्ण कहते हैं, कर्म करो पूरा, छोड़ दो फल का खयाल । कर्म को इतनी पूर्णता से करो कि फल के खयाल के लिए जगह भी न रह जाए। और तब एक नए तरह का आनंद भीतर खिलना शुरू हो जाता है। हीरे प्रकट होने लगते हैं; फिर कंकड़-पत्थर अपने आप छूटते चले जाते हैं।
जो भी करें, उसे पूरा। अगर भोजन भी कर रहे हैं, तो इतने आनंद से और इतना पूरा कि भोजन करते वक्त चित्त में और कुछ भी न रह जाए। सुन रहे हैं मुझे, तो इतना पूरा कि सुनते वक्त चित्त
कुछ भी न रह जाए। बोल रहे हैं, तो इतना पूरा कि बोलना ही मैं हो जाऊं; बोलते वक्त और कुछ भी भीतर न रह जाए।
अगर कर्म इतनी तीव्रता से और पूर्णता से किए जाएं, तो आपका फल अपने आप छूटने लगेगा। फल के लिए जगह न रह जाएगी मन में बैठने की।
कर्महीन क्षणों में ही फल भीतर प्रवेश करता है । निष्क्रिय क्षणों
में ही फल भीतर घुसता है। और आकांक्षाएं मन को पकड़ती हैं और हम कल का सोचने लगते हैं कि कल क्या करें? जिसके पास अभी करने को कुछ नहीं होता, जिसकी शक्ति अभी में पूरी नहीं डूब पाती, उसकी शक्ति कल की योजना बनाने लगती है। आज और अभी और इस क्षण में अपनी पूरी शक्ति को जो लगा दे, फल को प्रवेश करने का मौका नहीं रह जाता।
और एक बार पूरे कर्म का आनंद आ जाए, तो फल आपसे हाथ भी जोड़े कि मुझे भीतर आ जाने दो, तो भी आप उसे भीतर नहीं आने देंगे। आप उससे कहेंगे, बात समाप्त। वह नाता टूट गया। | पहचान लिया मैंने कि तुम आते हो सुख की आशा लेकर; दे जाते हो दुख! तुम्हारा चेहरा, जब तुम दूर होते हो, तो मालूम पड़ता है सुख है; और जब तुम छाती से लग जाते हो, तब पता चलता है दुख है । तुम धोखेबाज हो । फल की आकांक्षा धोखेबाज है, प्रवंचना है।
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ये तीन बातें - फल की आकांक्षा, संकल्प की प्रक्रिया, अहंकार का सघन होना— तीन गृहस्थी की व्यवस्थाएं हैं। इन तीन के जो बाहर है, वह संन्यस्त है।
आज इतना ही ।
लेकिन पांच मिनट रुकेंगे। इसके आगे के सूत्र पर हम कल सुबह बात करेंगे। अभी पांच मिनट रुकेंगे। जिस आनंदित संन्यासी की मैंने बात कही और कृष्ण जिसकी बात कर रहे हैं, वे हमारे | संन्यासी यहां इकट्ठे हैं; वे आपको प्रसाद देंगे आनंद का। पांच मिनट वे यहां नाचेंगे आनंद से। आप पांच मिनट बैठकर ताली बजाकर उनके आनंद में सहभागी हों और उनका प्रसाद लेकर जाएं। कोई भी उठेगा नहीं, कोई भी जाएगा नहीं ।