Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

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Page 9
________________ सभी अच्छी बातों का अनुभव हो, और प्रतिकूलता में भी अनुकूलता लगे, बात बात में स्फूर्ति तथा तृप्ति रहा करे....यह सब जानना अत्यन्त आवश्यक है। ____ मनुष्य यदि यह सब सूक्ष्मता से जान ले और उसके अनुसार वह अपने मन का झुकाव, विकल्प तथा ध्यान अच्छी ओर रखे तो कर्मयोग से प्राप्त नरकागार जस संयोगों में भी स्वर्गीय आनन्द तथा मस्ती का अनुभव कर सकता हैं । अन्यथा अच्छे संयोग होने पर भी रोना, शोक तथा संताप में जलने का होता रहेगा। इस जानकारी के लिए 'ध्यानशतक' शास्त्र एक अति उत्तम साधन है। यह पूर्वधर महर्षि विशेषावश्यक-भाष्यादि के रचयिता आचार्य भगवन्त श्री जिनभद्र गणिक्षमाश्रमण महाराज की कृति है । १०५ गाथा के 'ध्यान शतक' शास्त्र में मन की अवस्थाएँ, ध्यान का स्वरूप व प्रकार, शुभ-अशुभ ध्यान के लक्षण, लिंग, लेश्या, फल, अशुभ ध्यान की भयंकरता, शुभ ध्यान की भूमिका का सर्जन करने वाली उपायस्वरूप साधनाएँ, शुभ ध्यान के योग्य, देश, काल, मुद्रा, ध्यान हो सकने के अनुकल पालम्बन, शूभ ध्यान के विषयों ( ध्येयों) का विस्तार और उनके अधिकारी, शुभ ध्यान रुकने पर आवश्यक चिन्तन ( अनुप्रेक्षा)....इत्यादि कई विषय खूब भरे हुए हैं। इस प्राकृत भाषास्थ शास्त्र के संक्षिप्त निर्देशों को संस्कृत टीका में समर्थ शास्त्रकार आचार्य पुरन्दर श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। अथवा यों कहिये कि ग्रन्थ रूपी चित्र का उन्होंने टोका रूपी एन्लार्जमेन्ट (विस्तृतीकरण) किया है। इसके बिना असली संक्षिप्त शब्दों पर से अर्थ-विस्तार ससना कठिन था। इस टीका का सहारा लेकर

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