Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ चचरो परिहरि लायपबाहु पट्टिउ विहिविसर पारतंति सहु जेण निहोडिं कुमग्गसउ । दंसिउ जेण दुसंघ-सुसंघह अंतरउ, वद्धमाणजिणतित्थह कियउ निरंतरउ ॥ १० ॥ अर्थ-अविधि प्रवृत्त चैत्य - - साधु भक्ति आदि लोक प्रवाहका त्याग करके सुगुरु पारतन्त्र्य' के साथ विधि और विषय प्रवर्तित करके जिनने सैकड़ों कुमार्गों का निराकरण करके दुःसंघ ओर सुसंघके अन्तरको जिनने दिखाया। इस प्रकार जिनने श्री वर्द्ध मान स्वामीके पुनीत शासनको अविच्छिन्न बनाया । जे उस्सुत्त पयंपहि दृरि ति परिहरइ, जोउ सुनाण-सुदंसण किरिय वि आयरइ | गडरिगामपवाहपवित्ति वि संवरिय जिण गीयत्थायरियइ सव्वइ संभरिय || ११ ॥ अर्थ- जो लोग उत्सूत्र बोलते हैं उनको जो दूरसे ही त्याग देते हैं । एवं जो सम्यग ज्ञान सम्यग् दर्शन और जिनाज्ञा विधिरूप सुक्रियाका आचरण करते हैं । गडरिया प्रवाह में पड़े हुए लोगों की प्रवृत्तिका संवरण करके जिनने पूर्व में होनेवाले समस्त गीतार्थों को याद किया है । ५ १ सुगुरु पारतंत्र - संविग्न गीतार्थ गुरुकी आग्या का पालन ( त्यागिगुरुओं की सेवा ) ( चै० कु० ) २ विषय -- तीर्थकरादिकोंकि आसातना विर्जके भक्ति करना । Jain Education International चेइहरि अणुचियई जि गीयइं वाइयइ तह पिच्छण थुइ थुत्तइं खिड्डइ कोउयइ | विरहंकिण किर तित्थु ति सव्वि निवारियर, तेहिं कहिं आसायण तेण न कारियइ ॥१२॥ अर्थ - देव मन्दिर में जिन अनुचित गाने बजाने प्रोक्षणक (नाटक) स्तुति और कौतुकादिकोंको, विरहांक श्रीहरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजने निश्चय करके निषिद्ध कर दिये थे, क्यों कि उनके करनेसे वहाँ - श्री वीतराग मन्दिर में अशातना लगती है । शिथिलाचारियों द्वारा फिरसे प्रवर्तित उन्हीं गाने बजाने प्रमोदजनक आदिकोंको उन श्रीजिनवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज द्वारा भी नहीं करने दिये जाते हैं । श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज द्वारा निषिद्ध कार्य क्यों किये जाते थे ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116