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संदेह-दोलावली मूल----कीरइ न वत्ति जं, दव्वलिंगणो वंदणं इमं पुठ्ठ।
तत्थेयं पच्चुत्तरं लिहियं आवस्सयाईसु ॥३१॥ अर्थ द्रव्यलिंगि-शिथिलाचारियों को बन्दन करना चाहिये या नहीं ? इस प्रकार जो प्रश्न किया गया है उसके प्रति आवश्यकआदि सूत्रों में यह उत्तर लिखा हुआ है। मूल-पासत्थाई वंदमाणस्स, नेव कीत्ति न निज्जरा होइ ।
कायकिलेसं एमेव, कुणइ तह कम्मवंधं च ॥३२।। अर्थ-पासत्थे आदि शिथिलाचारियों को वन्दन करते हुए श्रद्धालु व्यक्ति की न कीर्ति होती हैं, और न निर्जरा ही हती है। केवल कायकलेष और कर्म बन्ध है ही वह करता है। मूल-जो पुण कारणजाए, जाए वायाइओ नमोक्कारो ।
कीरइ सो साहणं, सट्ठाणं सो पुण निसिद्धो ॥३३॥ अर्थ-कारणों के उत्पन्न होने पर पासत्थे आदियों को साध ही वाचिक नमस्कार करें । श्रावकों के लिये तो वाचिक नमस्कार भी निषिद्ध है। अर्थात् उनको श्रावक वचन से भी नमस्कार न करें। क्यों कि श्रावक आगमगत विशिष्ट विचारों से अनजान होते हैं। मूल-पोसहियसावयाणं, पोसहसालाइ सावगा वहुगा ।
गंतु पगरणजायं, किंपि वियारिति तं जुत्तं ॥३४॥ अर्थ - पौषध ग्रहण करनेवाले श्रावकों की पौषधशाला में बहुत से श्रावक जाकर उपदेशमाला-जीवविचार आदि किसी अनिदिष्ट प्रकरण विशेषको विचारते हैं । वह क्या ठीक है ? मूल-केणइ गीयत्थगुरु, आराहतेण पगरणं किंचि ।
सुठ्ठ सुयं नायं चिय, तस्सत्थं कहइ सेसाणं ॥३५॥ अर्थ-सुविहित गोतार्थ गुरु महाराज की आराधना करने वाले किसी श्रावक ने यदि कोई प्रकरण भलीभाति सुना हो एवं जाना हो तो उसके अर्थको बाकी के श्रावकों को कहता है कहना चाहिये । मूल-तं च कहतं अन्नो, जइ पुच्छइ कोवि अवरमवि किंचि ।
__ जइ मुणइ तं पि सो कहइ, तस्स अह नो भणिज्जे मं ॥३६॥
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