Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 95
________________ ८८ संदेह-दोलावली ____ अर्थ-कल्याणक-दिनों में पर्व तिथियों में या और किसी उद्देश्य से निविगय किया जाता है उसमें उत्कट द्रव्य खंडादि वस्तुयें उत्सर्ग विधि से छोड़ देना चाहिये ।। ' प्रश्न-अपबाद यह उपस्थित होने पर उत्कट द्रव्य स्वयं खाले या गुरु आज्ञा से खाना चाहिये। मूल-गीयत्था जुगपवरा, आयरिया दव-खेत्तकालन्नू । उकोसयं तु दव्वं, कहंति कय-निवियस्सा वि ॥१०१ अर्थ - द्रव्य क्षेत्रकाल और भाव को जानने वाले गोतार्थ युग प्रधान आचार्य निविगय करने वाले भव्यात्मा को उत्कट द्रव्य लेने की आज्ञा दे सकते हैं। मूल-उवहाणतवपइट्ठो असमत्थो भावओ य सुविसुद्धो । __उक्कोसगं तु दव्वं विगइच्चाए वि तस्सुचियं ॥१०२॥ अर्थ-- उपधान तप में प्रवेश किया हुआ सुविशुद्ध भाव वाला असमर्थ आराधक विगय त्याग करने पर भी उसनिविगय तप के उपयुक्त उत्कट द्रव्य का उपयोग कर सकता है। . मूल-जो पुण सइ सामत्थे, काऊणं सव्वविगइपरिहारं । भक्खइ खंडाइयं नियमा, सो होइ पच्छिती ॥१३॥ अर्थ-फिर जो सामर्थ्य के रहते हुए सब विगय के त्याग को अर्थात् निविगय पञ्चक्खाण करके यदि खंडादि उत्कट द्रव्य को खाता है तो नियम से बह प्रायश्चित का भागी होता है। मूल-इत्थ पत्थावे खण्डपुच्छए उत्तरं कयं । अर्थ-अकारण उत्कट द्रव्य खाने से निविगय पञ्चक्खाण वाले को दोष बताने के इस प्रस्ताव में खोंड खाना चाहिये या नहीं इस प्रश्न, का उत्तर एक सौ तेतीस वीं गाथा में आगे बताया है कि नहीं खाना चाहिये। मल-गिहिणो इह विहियायंबिलस्स कप्पंति दुन्नि दव्वाणि । एगं समुचियमन्नं बीयं पुण फासुगं नीरं ॥१०॥ अर्थ -आंबिल तप करने वाले गृहस्थ को एक समुचित अन्न और दूसरा अचित्त जल ये दो द्रव्य खाने पीने में कल्पते है।। मूल-गोहुम-चणग-जवेहिं भुग्गेहि सत्तएहिं छासीए । घुघुरिया वेढिमियाइ इड्डु रियाहिं न तं कुजा ॥१०५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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