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संदेह-दोलावली अर्थ-आलोचना का उपवास रोग आदि कारणसे किसी सुकुमार प्रकृति वाले को दो हजार श्लोक प्रमाण स्वाध्याय करके पूर्ण करना चाहिये। मूल-संतंमि वले संतंमि वीरिए, पुरिसकारि संतंमि । __जह भणियं सुद्धिकए, करिज्ज आलोयणाइ तवं ॥१२३॥
अर्थ-बल-शरीर सामर्थ्य के रहते हुए, वीर्यमन उत्साहके रहते हुए, और अंगीकृत निर्वाहक रूप पुरुषत्व के रहते हुए आलोचनाचार्य ने जैसा फरमाया है। वैसा, आत्मशुद्धि के लिये तप करना चाहिए । मनमाने ढंगसे नहीं करना चाहिये। मूल-अह नत्थि शरीर बलं तवसत्ती वि हु न तारिसा होइ ।
भावो विज्जइ सुद्धो ता अववाएण हुज्ज तवं ॥१२४।।
अर्थ-पक्षान्तरमें यदि वैसा देह सामर्थ्य नहीं है। पर आत्म शुद्धि के लिये भाव विद्यमान है, तो अपवाद से एकासन आदि द्वारा उपवास आदि तप हो सकता है। मूल-सुगुरूणं अणाए करिज्ज आलोयणातवं भव्यो ।
इय भणितसूत्र विधिना, स लहु परमप्पयं लहइ ॥१२५॥ अर्थ-श्रीसद्गुरुकी आज्ञा से इस प्रकार सूत्रमें बताई हुई विधि से जो भव्य जीब अलोचना तप करता है । वह जल्दीसे परमपद को प्राप्त करता है ।
प्रश्न-शिथिलाचारी कुगुरु द्वारा दी हुई आलोचना प्रमाणभूत होती है या अप्रमाणभूत ? कहते हैं। मल----केणावि सावएणं मुद्धणं सिढिलसूरिपासम्मि । ___ आलोयणा य गहिया, पमाणमिह किं न सा होइ ॥१२६॥
अर्थ-किसी भोले श्रावकने शिथिलाचारवाले आचार्य के पास आलोचना प्रहणकी हो तो वह जैन शासन में प्रमाणिक नहीं होती है क्या ? मूल---जमगीयत्थो सिढिलो आउट्टिपमायदप्पकप्पेसु ।
न वि जाणइ पच्छितं दाउं अह तं परं देइ ॥१२७॥ अर्थ-जो अगीतार्थ शिथिल-आ चार बाला आकुष्टि-हिंसादि रूप, प्रमाद-विषय सेवा रूप दर्प-कुदना आदि क्रिया रूप, कल्प कारणमें करना इन विषयों में प्रायश्चित्त देना नहीं जानता है, फिर भी दे देता है, तो वह विराधक होता है। लेनेवाले की आलोचना भी प्रमाणिक नहीं होती । कपोल कल्पनामात्र होने से ।
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