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संदेह-दोलावली मूल-जह किर चवलयचगया बिदलं तह संगरावि बिदलं ति। .
दिणचरिया नवपयपयरणेसु लिहिया उ फलिबग्गे ॥१३८॥ अर्थ-जैसे चंवले और चने द्विदल हैं। वैसे ही-सांगरियां भी द्विदल ही हैं। क्यों कि दिनचर्या और नवपदप्रकरण आदि प्रकरणों में सांगरियों को फलि वर्ग में लिखा गया है। मूल-नय संगरबीयाओ तिल्लुप्पत्ती कया वि संभवइ ।
दलिए दुन्नि दलाइ मुग्गाईणं व दीसंति ॥१३९॥ अर्थ- सांगरी के बीजों से कभी भी तैल की उत्पत्ति संभवित नहीं है। एवं घट्टी में दले जाने पर दो दल मुंग आदि के जैसे होते हैं । इस लिये सांगरो द्विदल ही है। मल-एवं कंडुय-गोवारपभियमारन्नियं भवे बिदलं ।
एयं न सावएणं भुत्तव्वं गोरसेण समं भणियं ॥१४॥ अर्थ-इसी प्रकार कडुक-ग्वार आदि जंगली धान्य-जो कि द्विदल होते हैं। उनको गोरस-कच्चे दही छाछके साथ श्रावकको नहीं खाना चाहिये। ऐसा पूर्वाचार्यों ने फरमाया है। मूल-पंचुबरि चउविगई हिम विस करगे य सव्वमट्टीय ।
राईभोयणगं चिय, बहुबीयणंतसंधाणं ॥१४१॥ घोलवडाबायंगण अमुणिय नामाइं पुफफलयाई ।
तुच्छफलं चलियरसं वजह वजाणि बावीसं ॥१४२॥ अर्थ-बड़काफल, पीपलकाफल; गुलरकाफल, पीलुकाफल, पोचुकाफल, इन पांच उदुबर फलोंको शराब, मांस, सहत, मक्खन, इन चार महाविगयों को शरदी में जमा हुआ पानी हिम, जहर, बर्षाद के गड़े सब प्रकार की मिट्टी, रोत्रीभोजन, बहुबीज, अनंतकाय, सन्धानं- कालानीत अचार, घोलबड़े, बैंगन, अज्ञात फलफूल, चलितरस इस वस्तु इन त्यागने योग्य बावीस अभक्ष्यों को अपने हितके लिये भव्य जीव छोड़ दें।
प्रश्न-स्वाधीन कुशील का त्याग करने वालेको पराधीन अवस्थामें कुशील सेवन हो । जाय तो व्रत भंग होगा या नहीं ? मूल-मणुय सुरतिरिय विसयं दुविहं तिविहेण थूलगमबंभं ।
सवसा चयामि मुत्त सयणाइ सदार कारवणं ॥१४३॥
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