Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 101
________________ ६४. संदेह-दोलावली नहीं कल्पता है, समान दोष होने से। इसी तरह निविगय में भी सभी विगयों को एवं उनके उत्कट द्रव्योंको छोड़ देने चाहिये क्या ? मूल-दो तिन्नि य विगईओ, पच्चक्खंतेण मुक्कलाउ कया । ताओ भोअण समए, सव्वा भुत्ता गुडेण विणा ॥१३३॥ मूल----ता खण्डसकराओ, सो भुंजइ किं न वेति इययुच्छा । (उत्तर मेवं) तत्थ उ, सेो वि न भक्खिज खण्डाइ ॥१३४॥ अर्थ-दो, तीन बिगयों को प्रत्याख्यान करते हुए खुली रखी, उन सबको भोजन के समय गुड को छोड कर खाली-तो गुड विगय के उत्कट द्रव्य खांड शक्कर आदि को वह प्रत्याख्यान करनेवाला व्यक्ति-खावे या नहीं ? इस प्रश्नका यह उत्तर है कि --न खावे । निविगय में भी यही बात जानना । * उत्सर्गसे उत्कट द्रव्यको नहीं खाना बता कर अपवाद विधि को बताते हैं ! मूल-जइ पित्ताई-रोगो सो खण्डाईहिं उवसमइ तस्स । ___ता तग्गहणं जुत्तं, रसगिडीए न तं भजे ॥१३५॥ अर्थ- यदि प्रत्याख्यान करने वाले को पित्त-आदि रोग हो जाय और वह खाँड आदि उत्कट द्रव्यों से उपज्ञान्त होता हो तो उनका ग्रहण करना युक्त हो सकता है। रसगृद्धि जीभ के स्वाद के लिये अयुक्त होगा। प्रश्न-कई लोग सांगरी और राइको द्विदल नहीं मानते। तो उनको द्विदल मानना चाहिये या नहीं ? मूल-जं संगरराईओ भवंति विदलं नवत्ति पुठ्ठाओ। तत्थेवं भन्नइ राइयाअ विदलं न भण्णंति ॥१३६॥ अर्थ-क्या सांगरियाँ और राई द्विदल हैं या नहीं ? इस प्रश्नके जवाब में कहते हैं कि उनमें राई द्विदल नहीं कही जाती। मूल-वरहासाईसु ठाणेसु ताओ जं घाणगंभि पक्खितं । ___ पीलिज्जंति तिल-सरिस बुब्व तिल्लं वि य मुयंति ॥१३७॥ अर्थ-वरहास आदि देश विदेशों में राईको घाणीमें डाल कर पीलते हैं। राई भी तिल-सरसों के जैसे तैल को छोड़ती है ! इस लिये गोरस में द्विदल के जैसा दोष नहीं माना गया। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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