Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 97
________________ संदेह-दोलावली वाद से हाथ पैर आदि शरीर में तैल आदि का मालिश कर सकता है। अन्यथा शृंगार की दृष्टि से ऐसा नहीं करना चाहिये । ___ मूल-आलोयणाविसुद्धिं, जो काउं वंछए स सज्झायं । वजिउं कालवेलं, करेइ ताओ इमे चउरो । ॥११॥ अर्थ-जो शुद्धात्मा अपने पापोंकी आलोचना-विशुद्धि करने को चाहता है बह महानुभाव चार कालवेला को छोड़कर स्वाध्याय को करे । मूल-च उपोरिसिओ दिवसो, दिणमझंते य दुन्नि घडियाओ । एवं रयणीमज्झे, अन्तंमि य ताओ चत्तारि ॥१११॥ अर्थ-चार पौरुषी का एक दिन होता है। दीनके मध्यमें और अन्तमें दो-दो घड़िये ऐसे दिन रात के मध्य और अन्तमें चारकाल बेलाएँ होती है। इनमें स्वाध्याय नहीं करना चाहिये। प्रश्न-कालवेला में ही स्वाध्याय नहीं करना या दूसरे किसी काल में भी ? । __ मूल----चित्ता-सोए सियसत्तमट्ठनवमि तिसु तिहीसँ पि । बहुसुय-निसिद्धमेयं न गुणिज्जुवएसमालाइ ॥११२।। अर्थ - चैत्र और आसोज में शुक्ल पक्षकी सप्तमी अष्टमो और नवमी इन तीन तिथियों में भी उपदेश माला आदि प्रकरणों को पढना बहुश्रुत-गीतार्थ आचार्यों ने निषेध किया है। उपरकी गाथामें उपदेशमाला आदि कहा गया है, तो आदि शब्द से किन-किन प्रकरणों को लेना चाहिये उनके नाम बताते हैं। मूल---उवएसपए पंचासए तह पंचवत्थुगसयगं । सयरी कम्मविवागं छयासि य तह दिवढसयं ॥११३।। जीवसमासं संगणिकम्मपयडी उ पिंडसुद्धिं च । पडिकमणसामायारिं थेरावलियं सपडिक्कमणं ॥११४॥ सामाइयचीवंदणवंदणयं काउसग्गसुत्तं च । पञ्चक्खाणं तह पंचसंगहं अणुवयाइविहिं ॥११५॥ खित्तसमासं पवयणसंदोहुवएसमालपुणसुत्तं । सावयपन्नति नरय-वन्नणं सम्मसत्तरियं ॥११६॥ + For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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