Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 96
________________ संदेह-दोलावली अर्थ-भुजे हुए गेहूं-चने-जौं से, जौं के सत्तु से, अधपकी धानकी घुधरी से बेढ मिसे, देश विशेष प्रसिद्ध इडुरिका से, गरम पानी और त्रिफला जलसे अतिरिक्त छाछ आदि पीने योग्य पदार्थों से आंबिल न करें। प्रश्न-आंबिल में दो द्रव्य ही लेने की विधि है तो दंतशुद्धिके लिये सीली ( तीनखा ) का उपयोग करना चाहिये या नहीं ? __मूल-जे पुण सिलियाई विणा, मुहसुद्धिं काउं इत्थमसमत्थो । सो कडुयकसायरसं, सिलियं गिण्हइ न से भङ्गो ॥ अर्थ-जो सिली के विना मुख-दातको शुद्धि करने में असमर्थ हो तो वह कडुए कसेले रसवाले नीम आदि की सीली ले सकता है। इससे आंबिल में दो द्रव्य नियम विधिका भंग नहीं होता। प्रश्न-उपवास में आहार विधि क्या है ? मूल--आहारतिगं वज्जिय सजियं न जलं पि पियइ पवररसं । जो किर कयउववासो सो वासं लहइ परमपदे ॥१०७॥ अर्थ-जो असण, खादिम और स्वादिम ऐसे तीन प्रकार के आहारों का त्याग करके प्रधान रसवाले सजीव-सचित्त पानी को नहीं पीते हैं वे परम पद-मोक्ष में निवास प्राप्त करते हैं। प्रश्न-आलोचना तप विधि कही गई । इसमें एवं दूसरे कल्याणक आदि तप संबंधी निविगय आदि तप में जो नहीं कल्पता है सो दीखाते हैं । मूल—पायच्छित्तविसोहणकरणखगम्मि तवम्मि पारद्धे । जलपिवणं कप्पइ नो निसाइ निम्वियाइ सेसत॥१०८॥ अर्थ-प्रायश्चित विशुद्धि करने में समर्थ आलोचना तप का प्रारंभ करने पर, एवं कल्याणकादि संबंधी निविगय आदि शेष तप में रात्री में जलपान नहीं करना चाहिये। प्रश्न-निविगय आदि तप में तैल आदि विकृतियों का बाह्य परिभोग करना चाहिये या नहीं। मूल-पायाईणभंगो निम्वियायंबिलोववासेसु । वायाइपीडिएहिं, कायव्वो अन्नहा न करे ॥१०९॥ अर्थ-निविगय- आंबिल और उपवास में वायु आदि रोग से पीड़िन व्यक्ति अप १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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