________________
संदेह-दोलावली अर्थ-यदि सामायिक करने वाला व्यक्ति कोई चतुर हो तो जितनी वार स्पर्श हुआ हो उतनी बार गिनती करके आलोचना करे। एवं अगर वह अतिमुग्ध स्वभावका है तो "बहुत से स्पर्श हुए ... ऐसा कहकर आलोचना करे।
वृत्तिकार के प्रासंगिक प्रश्नोत्तर -- प्रश्न -सामायिक में सूर्यचन्द्र प्रभा का संघट्टा क्यों नहीं माना जाता।
उत्तर सूर्य चन्द्र प्रभा का स्पर्श होता है पर विराधना नहीं होती। प्रभा अचेतन होने से।
प्रश्न-सिद्धान्त में सूर्य-चन्द्र की प्रभा को भी सकर्मकता से सचेतनता के जैसा सूचित किया है या न ? जैसे कि - भगवती सूत्र में - "अत्थिणं भंते ? सकम्मलेसा गुग्गला ओभासंति ? हंता अत्थि + x x x जा इमाओ चंदिम सूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेसाओ बहिया अभिनिरसडाओ पयाविति + x ते सरूबी सकम्मलेसा पुग्गला ओभासंति"-इस सूत्र में चन्द्र सूर्य से बादर अभिनिस्सृत प्रकाश पुदग्गलो को सकर्म लेश्या वाले बताये हैं। कर्म-लेश्या उनकी सचेतनता की सूचक है। सचेतन संघट्टे में विराधना क्यों नहीं माना जाय ?
उत्तर-चन्द्र सूर्य के प्रकाश में कर्म और लेश्याओ का कथन उपचार मात्र है यथार्थ में नहीं । क्योंकि इसकी टीकामें भगवान अभयदेवसूरिजो महाराज फरमाते हैं कि-"यद्यपि चन्द्र आदि विमान के पुद्गल पृथ्वीकाय रूप होने से सकर्म लेश्या वाले हैं ही! परं तन्निर्गत प्रकाश पुद्गल तद् हेतु रूप से उपचार से सकर्म लेश्या वाले जानने चाहिये" । प्रकाश पुद्गल अजीव होने से विराधना नहीं होती।
फिर कतनेक जीवों के उद्योत नाम कर्म का उदय होता है जिससे कि उनके दर रहते हुए भी अनुष्ण प्रकाशात्मक उद्योत होताहै। जैसे यति-देवोत्तर वैक्रिय चन्द्र-ग्रह नक्षत्र तारा औषधि-मणि रत्न आदि में देखा जाता है। तथा कितनेक जीवों के आताप नाम कर्म होता है जिसके उदय से उनके शरीर दूर रहते भी उष्ण प्रकाश रूप-आतप को कहते हैं। जैसे कि सूर्य विम्ब । इस हालत में उनके प्रकाश के स्पर्श से विराधना नहीं हो सकती।
प्रश्न - उनके दूर रहने पर उनके उद्योत-आतप से यदि विराधना नहीं होती तो-दूर रहे हुए विजलों दीपक आदि से अग्निकाय की विराधना उनके प्रकाश के संघट्ट से कैसे लगेगी?
उत्तर-अग्निकाय में न आतप नाम कर्म है, न उद्योत नाम कर्म है। क्यों कि उनका स्वभाव हो ऐसा है । उष्ण स्पर्श और लोहित वर्ण नाम कर्म के उदय से अग्निकाय के जीव ही प्रकाश वाले होते हैं । और इधर उधर विखरते हैं। उनमें प्रभा-प्रकाश होता है। वह
१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org