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संदेह-दोलावली मूल-सज्झायतवसमत्थो जइ सडो साविगो वि अह हुजा ।
ता अणिगूहियविरिया, कुणंति तवमागमुत्तमिणं ॥८१॥ अर्थ स्वाध्याय और उपवासादि तप में श्रावक श्राविका समर्थ हैं तो शक्ति को नहीं छपाते हुए आगमों में फरमाया हुआ आलोचनार्थ यह उपवासादिक तप ही करें। स्वाध्याय को तपोभेद माना जरूर है पर जीतकल्प चूर्णि में प्रायश्चित्त के भेदों में उसकी गिनती नहीं की गई है। कायोत्सर्ग भी तपभेद है फिर भी उसका “काउसग्गारिहं" - "तवारिहं" रूपसे अलग विधान किया है । “तवारिहं"-प्रायश्चित अनसन तप से ही होता है। ___ यदि ऐसा है तो आलोचना में इतनी सज्झाय करना ऐसा क्यों कहा जाता है। जीतव्यवहार से। तप में अशक्त मनुष्य शुद्धि के लिये स्वाध्याय भी कर सकता है यह एक-अपबाद है।
प्रश्न-आलोचना तप करते हुए क्या क्या करना चाहिये ? गाथाष्टक में बताते हैंमल-आलोअणानिमित्तं पारद्ध तवम्मि फासुगाहारो । - सच्चित्तवजणं बंभचेरकरणं च अविभूसा ॥८२॥
अर्थ-आलोचना निमित्त प्रारंभ किये हुये तप में प्रासुक आहार, सचित्त का त्याग ब्रह्मचर्य-पालन और अविभूषा-शृङ्गार त्याग करना चाचिये। . मूल-इंगालाइ पनरसकम्मादाणाण होइ परिहारो ।
विकहोवहासकलहं पमाय भोगातिरेगं च ॥८३॥ अर्थ-अङ्गार कर्म आदिक पनरहकर्मा दानों का, विकथा, उपहास, कलह प्रमाद और भोगों की अधिकताका भी त्याग करना चाहिये। मूल---कुजा नाहिगनिदं परपरिवायं च पावट्ठाणाणं ।
परिहरणं अप्पमाओ, कायव्यो सुद्ध धम्मत्थे ॥८४॥ अर्थ-अधिक नींद नहीं लेनी चाहिये। पर निन्दा और पापस्थानों का परिहार करता चाहिये । शुद्ध धर्म कार्यो में अप्रमाद सेवन करना चाहिये। मूल-तिक्कालं चियवंदणमित्थ जहन्नेण मज्झिमेण पुणो । __ वारा उ पंच सत्तं च उक्कोसेणं फुडं कुज्जा ॥८५॥
अर्थ-आलोचना में जघन्य से त्रिकाल मध्यम भाव से पांच बार और उत्कृष्ट सात बार चैत्य वन्दन करे।
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