Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 89
________________ संदेह-दोलावली प्रश्न-अनेक जाति के चावल आदि अलग २ पात्रोंमें पके हो तो एक द्रव्य होता है, या अनेक द्रव्य ? मूल---नाणाजाइसंमुब्भवतंडुलसिद्धं पुढो भवे दव्वं । निच्छयनयेण ववहारओ नये दव्वमेगं ति ॥७१॥ अर्थ-अनेक जाति के चावलों से बना हुआ भोजन निश्चय नय से अलग द्रव्य और व्यवहार नय से एक द्रव्य रूप होता है। __ प्रश्न-पर्श्वस्थादिकों के साथ रहने का और उन से आलोचना लेनेका पंचाशक वृत्ति में महाश्रुतधरश्रीमदमयदेवसुरिजी महाराज ने विधान किया है । तो उन पार्श्वस्थादिकों को वंदना करनी चाहिये या नहीं। मूल-पंचासगेसु पंचसु वंदणगा नेव साहु सड्डाणं । लिहिया गीयत्थेहिं अन्नेसु य समयगंथेसु ॥७२॥ अर्थ-यतिधर्म पंचाशक में और आलोचना पंचाशक में पासत्थे, ओसन्ने, कुशीलिये, संसक्ते, और यथाच्छन्दे इन पांचप्रकार के नाम साधुओ को सुविहि साधु और श्रावको कु वन्दना नहीं बताई है। मूल-देवालयम्मि साक्यपोसहसालाइ सावगाणेगे। जइ हुंति तेवि तिपण? साविया जंति निसुणंति ॥७३॥ __ अर्थ-मन्दिर में श्रावक पौषधशाला में या ऐसे ही स्थानों में जहाँ कि सुविहित आधुओं के उपदेश होते हैं । वहां यदि अनेक श्रावक वे भी आठ पांच या कम से कम तीन मौजूद हों तौ श्राविकाएं जाती हैं और व्याख्यान सुन सकती है। प्रश्न-जिस प्रदेशमें सुविहित साधु नहीं होते हैं, वहां श्रावक जो कुछ प्रकरणादि धार्मिक विचारों को जानता है, वह दूसरे लोगों को उपदेश रूप में कहे या नहीं ? मूल-जत्थ न हु सुविहिया हुंति, सहुणो सुविहिया वि ते इत्थ जे । गीयत्थसुत्तत्थ-देसगा तेसिं विरहम्मि ॥७॥ मूल-जं मुणइ सावओ तं कहेइ सेसाणं किं न जं पुट्ठ। पच्चुत्तरमेयं तत्थ कहइ जइ सो वि याणइ तं ॥७५॥ अर्थ-आगमो में सुविहित-क्रियापात्र साधु-वे भि गीतार्थ के एवं सूत्र और अर्थ के उपदेशक हों ऐसे-साधु जिस देशमें नहीं होते हैं, वहां सुविहित एवं गीतार्थ गुरु की दयासेबहुश्रुत श्रावक प्रकरणादि विचारों को जानता है, वह दूसरे लोगों को व्याख्यान द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116