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संदेह - दोलावली
कह सकता है। किसी के द्वारा "क्या ऐसा है ? क्या ऐसा नहीं है ?" - इत्यादि रूप प्रश्न सुगुरु से समझा हुआ हो तो "यह ऐसा है । यह ऐसा
किसी विषय में पूछा जा, उसे भी नहीं है" इत्यादि जबाब दे सकता है ।
इसी बात को भद्र जीवों के हित लिये स्पष्ट कहते हैं
मूल --- सुगुरूणं च विहारो, जत्थ न देसम्मि जायए कहवि ।
पयरण वियार कुसलो, सुसाबगो अत्थिता कहउ ॥७६॥
अर्थ - जिस देशमें मार्ग आदि की विकटता आदि कारणों से सद्गुरुओं का विहार नहीं होता है, वहां प्रकरण विचार कुशल श्रावक यदि हो तो व्याख्यान कर सकता है ।
प्रश्न - जिस देश में कारण वशात सुगुरु लोग नहीं पथारते हैं । वहाँ के निवासी स्थापना चार्य जी के सन्मुख आलोचना निमित्त तप करें या नहीं ? और करें तो कैसा करें ? मूल — आलोयणानिमित्तं कहं तवं कुणइ साविया सड्डो । पुट्ठे इणमुत्तरमिह भन्नइ भो निसामेह ||७७||
अर्थ - आलोचना-शुद्धि ग्रहण करने के लिये किस विधि से श्रावक श्राविका तप ग्रहण करें ? ऐसा पूछने पर भो भव्य ? सुनियें वह विधि यहां बताई जाती है ।
मूल - पंच परमेहिपुव्वं ठवणायरियं ठविडं विहिणाओ ।
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तत्थ खमासमणदुगं, दाउं मुहपत्तिपेहणयं ॥ ७८ ॥ तत्तो दुआलसावत्तवंदणंते य संदिसाविज्जा । आलोयणातवं तो दिज्जा अण्णं खमासमणं ॥ ७९ ॥ एवं भण्णइ तत्तो करेमि आलोयणातवं उचियं । उस्सग्गेणं तत्तो कुणइ तवं अत्तसुद्धिकए ||८०||
अर्थ - आलोचना ग्रहण विधि - उचित स्थान में भूमिकी प्रमार्जना कर पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्र पढ़ कर विधि पूर्वक स्थापना चार्य जी को स्थापना करे । बाद में खमासमण देकर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ? सोधि मुहपत्ति पहिलेहु दूसरा खमासमण दे मुहपत्ति पsिहण करे | बाद द्वादशावर्त्त वांदणा दोवार देवें । तदन्तर खमासमण देकर इच्छा कारण संदिसह भगवन् आलोचणा तप संदिसाहुं । दूसरा खमासमण दे इच्छा कारेण संदिसह भगवन् ? आलोचणा तप करू ।
प्रश्न - उक्त रीति से तप और स्वाध्याय दोनों करने में समर्थ आलोचक क्या तप ही करे ? या तपो भेदरूप स्वाध्याय को ही ?
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