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संदेह-दोलावली मूल-तो ते भव्वा जेसिं, होइ सडावस्सए वि इइबुद्धी ।
कह सिद्धते वुत्तं, भव-सिव-दुह-सुहकरं एयं ॥२१ अर्थ-कितनेक लोग मन्दिर आदि के संबन्ध में तर्क करना उचित मानते हैं । परन्तु सडावश्यक क्रिया में नहीं। उन लोगों को ध्यान में रखते हुए ग्रन्थ कार फरमाते हैं कि - आवश्यक में भी द्रव्य-भाव आदि अनेक रूपता होने से सडावश्यक में भी इस प्रकारकी तर्क बुद्धि जिनके दिल में उत्पन्न होती है कि सिद्धान्त में आवश्यक किस प्रकार फरमाया है वह संसार का हेतु है ? या मोक्षका ? सुखकारी है ? या दुखःकारी ?। इस प्रकार सडावश्यक में तर्कणा करने वाले वे लोग भव्य-सुन्दर प्रकृति वाले ही हैं। मूल-एसो किर सन्देहो जायइ केसि पि इत्थ भव्वाणं ।
परिग्गहपरिमाणं सावगेण एगेण जं गहियं ॥२२॥ मूल-तं अन्नो वि हु भव्वो, घित्तुणं पालय पहत्तेणं ।
जय ता जुत्तं किमजुत्तमित्थ तत्थुत्तरं एयं ॥२३।। अर्थ-कितनेक भव्यात्माओं को यहां यह सन्देह होता है कि एक श्रावक ने जैसे परिग्गहपरिमाण ब्रत को लिया है उसको साक्षी मानकर उसी तरह से यदि कोई दूसरा भव्यात्मा श्रावक परिग्रहपरिमाण व्रत लेकर प्रयत्न पूर्वक पालन करता है। अर्थात् संयोग वशात् गुरु साक्षी से व्रत नहीं लिया-तो वह परिप्रहपरिमाण व्रत का पालन उचित है। वा अनुचित ? इस प्रकार का प्रश्न होने पर उसका उत्तर यह है कि-। ___मूल-भवभिरू संविग्गो, सुगुरुणं दंसणम्मि असमत्थो ।
ता तं पवज्जिऊणं, पालइ आरोहगो सो वि ॥२४॥ अर्थ-गुरुसाक्षी से गृहीत परिग्रहपरिमाण व्रत वाले के परिग्रह परिमाण को देखकर कोई भवभीरू संसार से उद्विग्न चित्तबाला सद्गुरु महाराज के दर्शन करने में असमर्थ ही हो उस हालत में उस परिग्रहपरिमाण व्रत को अपना कर उक्त मर्यादा से अगर पालन करता है तो वह आराधक-भगवान का आज्ञाकारी ही है।
अति प्रसंग को निवारणार्थ कहते हैंमल-जइ तं गीयत्थेहिं, सुगुरुहि दिट्ठमत्थि सत्थोत्तं ।
ता तं परोवि गिण्हउ, तग्गहणं नन्नहा जुत्तं ॥२५॥ अर्थ-अगर वे वह परिग्रहपरिमाण गोतार्थ सद्गुरुओं द्वारा देखा गया है और यदि वह शास्त्रोक्त है तो उसको दूसरा भी ग्रहण करो। यदि ऐसा नहीं है, तो वह ग्रहण करना भी युक्त नहीं है।
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