Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 53
________________ ४६ कालस्वरूप कुलकम् तिणि वेसिणि ते चार रिहिल्लिउ मुसहि लोउ उम्मग्गिण घल्लिउ । ताहं पमत्तउ किवइ न छुट्टइ जो जग्गइ सम्मि सुबइ ॥८॥ अर्थ - उस उस साधु वेषसे वे चोरोंका सा व्यवहार करते हैं । लोगों को ठगते हैं, और उन्मार्ग में डाल देते हैं । उन लिंगधारियोंसे भोला भाला प्रमत्त संसारी प्राणी वह किसी प्रकारसे नहीं छूट सकता । जो ऐसे बोगोंसे सजन - सावधान रहता है, वही विधि मार्ग रूप सद्धर्म में प्रवृत्ति करता है ॥८॥ ते वि चोर गुरु किया सुबुद्धिहि सिववहुसंगमसुहरसलुद्धिहि । ताहि वि खावहि अप्प-उपासह छुट्ट कह विन जिंव भवपासह ||९|| बुद्धिसे उन भाव चोरोंको भी गुरु किये हैं । उन साधना करते हुए इस प्रकार खाते हैं कि वे संसारी छूटते नहीं हैं || अर्थ - शिवसुन्दरीके संगम सुखके रसमें लुब्ध मुग्धात्माओंने अविवेक पूर्ण अपनी उपासकों को भी वे कुगुरु लोग स्वार्थ जंजालसे किसी भी तरह से बिचारे दुद्धु होइ गो-यविहि पर पेज्जतइ अंतरु एक्कु सरीर क्खु अवरु पियउ पुणु मंसु वि साडइ ॥१०॥ अर्थ -- गायका दूध और आकडेका दूध ये दोनों ही होते तो सफेद ही हैं । परन्तु पीने पर इनमें बड़ा भारी अंतर दीखता है । गायका दूध तो शरीर में सुख पुष्टि पैदा करता है, तो दूसरा आकडेका दूध पीने पर मांसको ही सारे शरीरको सड़ा देता है ||१०|| कुगुरु सुगुरु सम दीसहि बाहिरि परि जो कुगुरु सु अंतरु वाहिरि ? | जो तसु अंतरु करइ वियव्खणु सो परमप्पउ लहइ सुलक्खणु ॥११॥ Jain Education International धवलउ बहलउ । संपाडइ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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