________________
श्री श्री १०८ श्री श्रीमज्जिनदत्तसूरीश्वर विहितं ॥ संदेह-दोलावली॥
अपर नाम कतिपय संशय पद प्रश्नोत्तर
प्रकरणम्
(अनुवादक-श्रीमज्जिनहरिसागरसूरी ) पडिविम्बिय पणयजयं, जस्संघ्रिरुहोरुमुउरमालासु ।
सरणागयं व नज्जइ, तं नमिय जिणेमरं वीरं ॥ १॥
अर्थ --प्रणाम करता हुआ जगत् जिनके पद-नख रूपदर्पणोंमें प्रतिबिम्बत होता हुआ शरणागत के जैसे देखा जाता है। उन शासनाधीश्वर जिनेश्वर श्रोवीरप्रभु को विनय वन्दन कर के।
कइवयसंदेहपयाणमुत्तरं, सुगुरुण संपयाएणं ।
वुच्छं मिच्छतमओ, तमन्नहा होइ संमइयं ॥२॥ अर्थ-सुविहितगीतार्थ गुरु देवों के सम्प्रदाय के अनुसार कितनेक संदेह स्थानों के उत्तर को मैं कहूँगा! इसलिये कि उसके कहे विना सांशयिक नामका मिथ्यात्व होता है।
सुगुरुपयदंमणं पइ कयाभिलासेहि सावयगणहिं ।
परमसुहकम्मपयडिप्पडिसिद्धतदिट्ठसंगेहिं ॥ ३ ॥ अर्थ-श्री सद्गुरु महाराज के दर्शनों के प्रति जिनकी अभिलाषा है, परंतु अशुभ कर्मप्रकृति के उदय से प्रतिविद्ध हो रहे हैं श्रीगुरुमहाराज के इष्ट दर्शन सत्संग जिनके ऐसे अनेक देशीय श्रावक समुदायों को-।
गीयत्थाणं गुरूणं , अदसणाओ कहं भवे सवणं ।
सवणं विणा कहं पुण, धमाधम्मं विलक्खिज्जा ॥४॥ अर्थ-गीतार्थ सद्गु ओं के दर्शन नहीं होने से शास्त्र श्रवण कैसे हो। फिर शास्त्रों को सुने विना धर्म को एवं अधर्म को कैसे पहिचानें । अर्थात् गुरु दर्शन-सत्संग के विना धर्माधर्म को पहिचना मुश्किल है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org