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संदेह-दोलावली कहमित्थ पयणट्टां, धम्मो संभवइ कहमधम्मो य ।
धम्मो वि दुहा इह, दव्वभावमेएहिं सुपसिद्धो ति॥५॥
अर्थ-इस संसार में किस प्रकार प्रवृत्ति करने से किस प्रकार का धर्म होता है हाला कि लोरूढिसे धर्म और अधर्म को सभी जातते हैं। परन्तु यथार्थ अनुष्ठान ज्ञान का अभाव गुरुगम के विना रहता ही है । एवं यथार्थ अनुष्ठान के विना कार्य सिद्धि भी नहीं होती। द्रव्य और भाव इन दो भेदों से धर्म भी दो प्रकार का होता है, यह बात तो सुप्रसिद्ध ही है।
गड्डग्यिपवाहाओ-जो पइनयरं दीसए बहुजणेहिं । जिणगिहकारवणाई, सुत्तविरुद्धो असुद्धो य ॥६॥ अर्थ-गाडरियाप्रवाह से--अविचारपूर्ण प्रवृति से प्रत्येक नगर गांव आदि में शुभाचार रूप होने से यह धर्म है, ऐसा जो धर्म है। जिसमें कि अविधि पूर्वक जिन मंदिर बनाना-पूजना आदि कार्य होते हैं । वह धर्म सूत्रविरुद्ध, और अशुद्ध माना जाता है। क्यों कि उसमें सद्गुरुओं की सत् शास्त्रों की आज्ञा नहीं होती।
सो होई दव्वधम्मो अपहाणो नेय निव्वुई जणइ ।
सुद्धो धम्मो विओ, महिओ पडिसोयगामीहिं ॥७॥ अर्थ- सूत्र विरुद्ध एवं अशुद्ध ऐसा वह शुभाचार रूप धर्मभी द्रव्य धर्म कहा जाता है । वह अप्रधान होने से निवृत्ति-परमानन्द रूप मुक्ति को पैदा नहीं करता। आगम विहित, गीतार्थगुरु अनुमत प्रतिश्रोतगामी-त्याग मार्ग को स्वीकारने वाले संयमी पुरुषों द्वारा अराधित, ऐसा दूसरे प्रकार का विचार पूर्वक किया हुआ धर्म-भावधर्म माना जाता है, एवं वह शुद्ध है।
जेण कएणं जीवो, निवडइ संसारसागरे घोरे ।
तं चेव कुणइ कज्जं, इह सो अणुसोयगामी उ ॥८॥ अर्थ-जिस काम के करने पर जीवात्मा घोरसंसार सागर में गिर जाय-उस कामको जो करता है, उसको इस प्रवचन में अनुश्रोत्रगामी बताया है।
जेणाणुढाणेणं खविय, भवं जंति निव्वुइं जीवा ।
तकरणरुई जो किर' नेओ पडिसोयगामी सो ॥९॥ अर्थ-जिस अनुष्ठान-क्रिया कलापको करके जीव अपने संसार को मिटा करके निर्वाण धाम में पहूँच जाते हैं। उस अनुष्ठान को करनेकी रुचि-वाला मनुष्य निश्चय करके प्रतिश्रोतगामी शास्त्रो में बताया है ऐसा जानना चाहिये ।
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