Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 57
________________ कालस्वरूपकुलकम् ईसर धम्म-पमत्त जि अच्छहि पाउ करेवि ति कुगइहिं गच्छहिं । धम्मिय धम्मु करंति जि मरिसिहि ते सुहु सयलु मणिच्छिउ लहिसिहिं ॥२३॥ अर्थ- ऐश्वर्य संपन्न लोग जो धर्म में प्रमादी रहते हैं वे पाप को कर के कुगति में जाते हैं । धार्मिक लोग जो धर्म करते हुए मरेंगें वे मनचाहे समस्त सुखों को पायेगें ।।२३।। पुन्नवंत विहिधम्मि जि लग्गहिं ते परमत्थिण जीवहि जग्गहिं । अप्पु समप्पहि ते न पमायह इह-परलोइ वि विहियावायह ॥२४॥ अर्थ-जो पुण्यवान होते हैं वे विधि-धर्म में लगते हैं। वे मर कर के भी परमार्थ से जग में जीते हैं और जागते हैं । वे लोग इस लोक और पर लोक में दुःख देनेवाले प्रमाद के आधीन आत्मा को नहीं सौंपते हैं ॥२४॥ तुम्हह इहु पहु चाहिलि दंसिउ हियइ बहुत्तु खरउ वीमंसिउ । इत्थु करेज्जहु तुम्हि सयायरु लीलइ जिव तरेहु भवसायरु ॥२५॥ अर्थ-तुम लोगों को यही मार्ग तुम्हारे पिता चोहिल ने हृदय में भली भांति शोच कर दिखाया है । इस लिये तुम लोग हमेशा इसी मार्ग में चलने की भावना रखो। जिस से कि संसार समुद्र को तुम लोग लीला मात्र में तिरोगे ॥२५॥ (१) जहिं घरि बंधु जुय जुय दीसह तं घर पडइ वहंतु न दीसइ। -१ अणहिल्ल पुर पाटन में चाहिल नाम का एक श्रावक था। जिस ने परीक्षा पूर्वक प्रभु श्रीजिनदत्तसूरि जी महाराज को धर्माचार्य रूप से स्वीकारे थे। उनके चार बेटे यशोदेव-आभ--आसिग और संभव नाम के थे । काल दोष से वे जुदा होना चाहते थे। चाहिल ने उस में गुण नहीं देखते हुए गुरु महाराज को पुत्रों को शिक्षा दिलाने को इच्छा से विनतो पत्र भेजा जिस के जबाव में यह कुलक धर्म देशना गर्भित लेख उन्होंने भेजा था। जिसको पढ़ कर चाहिल शेठ के चारों पुत्र प्रसन्नता के साथ संप से रहे बढ़े, और विधि मार्ग को आराधना करते रहे । व्याख्याकार: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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