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चैत्यवन्दन-कुलकम् विधि चैत्य के होते हुए निश्राकृत चैत्यमें हमेशा जाने से प्रायश्चित्त लगता है मह वताते हैंमूल-विहिचेइयंमि सन्ते, पइदिणगमणे य तत्थ पच्छित्तं ।
समउत्तं साहूण पि, किमंगमबलाण सड्डाणं ॥७॥ अर्थ- जहाँ कहीं विधि चैत्य के वर्तमान होते हुए उन पार्श्वस्थावसन्न साध्वाभासों के निश्राकृत चैत्य में प्रति दिन जाने से साधुओं के लिये भी शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त फरमाया है। उसी में शास्त्रीय शक्ति से निर्बल ऐसे श्रावकों के लिये तो कहनाहीं क्या ? अर्थात् उनको तो वहां हमेशा जाने में पद २ पर प्रायश्चित्त का अधिकारी होना ही पडता है। अत: ऐसे निश्राकृत चैत्य में हमेशा नहीं जाना चाहिये । अपबाद से कभी-कभी जाने की आज्ञा है ॥७॥
अब सम्यकदृष्टि श्रावक साधुओं को जहां कतई नहीं ऐसे चैत्यका स्वरूप बताते हैंमूल---मूलुत्तरगुणपडिसेविणा य, ते तत्थ संति वसहिसु ।
तमाणाययणं सुत्ते, सम्मत्तहरं फुडं वुत्तं ॥८॥ अर्थ-साधुओं के पञ्चमहाव्रतादि मूल-खास गुणों के एवं पिण्ड विशुद्धि आदि उत्तर गुणों के प्रतिकूल आचरण करने बाले-मलोत्तर गुण प्रति सेवी साधु वेस मात्र धारण करने वाले द्रव्यलिंगी जहाँ -- वसतिओं में स्थानों में मंदिरों में रहते हैं। उस स्थान को सूत्रों में स्पष्टतया सूत्रोंमें सम्यक्त्व नाशक फरमाया है । १-जत्थ साहाम्मियया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया ।
मूलगुणपडिसेवी, अणाययणं तं वियाणहि ॥१॥ जत्थ साहम्मिया सव्वे, भिन्नचित्ता अणारिया । उत्तरगुणपडिसेवी, अणाययणं तं वियाणहि ॥२॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । लिंगवेस पडिच्छिन्ना, अणाययणं तं वियाणहि ॥३॥
अर्थ - जहाँ जूदे-जूदे वृत्तवाले आनार्यप्राय मूलोत्तर गुणके प्रतिकूल आचरणवाले एवं जूदे-जूदे लिंगवेश भूषावाले समानधर्मी साधाभास रहते हैं वह अनायतन नहीं जाने योग्य स्थान होता है।
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