Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 56
________________ ---- कालस्वरूप कुलकम् जिणेहि निसिउ बहुलोयन मंसिर । लोय ते घोवा जमणाययणु तं दहि जे रयणित्थि अइसउ न मुणवि अंतरु धोवा ||१९|| अर्थ तीर्थंकर देवोंने जो अनायतन बताया है, उसको बहुतलोक नमस्कार करते हैं अनायतको वंदन करते हैं। ठीक ही है रत्नोंके अर्थी - ग्राहक थोड़े ही होते हैं । रत्नोंके और पत्थरके अन्तरको मूर्खलोग नहीं जान सकते हैं ॥ १६ ॥ पारतंतु विहिबिसउ न बुज्झहि जो परियाणइ तिणि सहु जुज्झहिं । सो भसमग्गहगहिउ निरुतर ४६ दस मच्छेरण सो मुत्तउ ॥२०॥ अर्थ- पारतंत्र्य विधि और विषयको जो नहीं जानता है । एवं जो जानता है उसके साथ वह लडता है। वह भस्मनामके कुग्रहसे निश्चय करके ग्रस्त हुवा हुआ है, अथवा दशमाश्चर्य से - असंयति पूजा रूपसे भोगा गया है ||२८|| हुँड अवसप्पिणि दुट्ठी अस्संजय पूइँ पयट्ठी तासु वि दूसम जाय सहाइणि अहह ! जह Jain Education International जव्वस हूय पय पावह भाइणि ॥ २१ ॥ अर्थ- हा इति देखे ? यह हुंडा अवसर्पिणी काल बड़ा दुष्ट है । जिसमें कि असंयतिअसाधुओंकी पूजा-मानता घुस रही है। उसके भी यह पांचवां आरा-दुष्षम काल सहायक हो रहा है । जिसके प्रभाव से प्रजा पाप को भजने वाली हो रही है ||२१|| तह वि जहन्न वीस जा बिरुई ताण गई । तासु पयट्ठ गुणह अंति संवच्छर जि खउ पाविय पय पुण तहिं बहुया ||२२|| हुया अर्थ - उसमें जो जघन्य वीसी है वह भो विरूप हो रही है । गुणों की बड़ी भारी प्रतिष्ठा भी उनमें नष्ट हो रही है । उस जघन्य विशाति के अंत में जो संवत्सर- वर्ष आये उन में भी बहुत प्रजा का क्षय हुआ ||२२|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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