Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 54
________________ कालस्वरूपकुलकम् ४७ अर्थ- कुगुरु और सुगुरु भी बाहिरसे-उपरसे समान रूप ही दीखते हैं। परन्तु अरे भोले प्राणी कुगुरु तो अंदरुनी-भोतरी ब्याधि है जो उपर नहीं दीखती। जो विचक्षण कुगुरु-सुगुरु इन दोनों में जुदाई कर देता है वह शुभ लक्षण संपन्न भव्यात्मा परम पदको पाता है ॥१॥ जो धत्तूरयफुल्लु समुज्जलु पिव्खिवि लग्गउ तित्थु समुज्जलु । जइ सो तसु रसु पियणह इच्छह ता जगु सव्वु वि सुन्नउ पिच्छह ॥१२॥ अर्थ-धतुरेके फूलको समुज्ज्वल देखकर जो जडात्मा समुद खुश होकर उसमें लगता है। एवं यदि उसके रसको पीना चाहता है - पीना है, तो सारा जगत ही उसको शून्यसा या सोनेका सा दीखता है। धतुरेके फूलके जैसे कुगुरु भी उपरसे अच्छे दीखते हैं परन्तु परिणाममें भयंकर होते हैं ॥१२॥ इय मणुयत्तु सुदुल्लहु लदउ कुल-बल-जाइ-गुणेहिं समिद्धउ । दस दिलंत इत्थ किर दिन्ना इह निप्फलु ता नेहु म धन्ना ॥१३॥ अर्थ कुल बल जाति एवं गुणोंसे समृद्ध यह मनुष्यत्व बड़े दु:खसे मिला है। इसके लिये शास्त्रोंमें दश दृष्टान्त भी बताये हैं। ऐसे दश दृष्टान्तोंसे भी दुल्लर्भ इस मनुष्य जन्मको हे धन्यात्माओं! निषफल मत बनाओ ॥१३॥ लडिं नरत्ति अणारियदेसेहिं को गुणु तह विणु सुगुरुवएसिहि ! आरिथदेस जाइ-कुलजुत्तउ काइ करेइ नरत्त वि पत्तउ ॥१४॥ अर्थ- अनार्य देशमें सद्गुरु महाराजके पवित्र उपदेशोंके विना पाया हुआ भी मनुज्य जन्म क्यो गुण कर सकता है ? कुछ फी नहीं। आर्य देशमें अच्छी जाति एवं कुलके संपन्न भी मिला हुआ नर जन्म क्या फायदादायक हो सकता है ॥१४॥ जहि किर आउ होइ संखित्तउ तित्थु न कज्जु पसाहइ वुत्तउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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