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कालस्वरूपकुलकम्
लोहिण जडिउ जु पोउ फुट्टइ चुंधुकु जहि पहाणु किव वइ ! । नेय समुदह पारु सु पावइ
अंतराल तसु आवय आवइ ॥२९॥ अर्थ-जिस समुद्रमें लोह चुंबक पाषाण पड़े हुए हों उसमें लोह जडित जहाज कसे चल सकता है, वह तो फूटता ही है । समुद्र पार वह नहीं पहुंचता बीच में ही उसके लिये तो आपत्ती-- सर्वनाश की घड़ी आ जाती है। इसी प्रकार जो गृहस्थ लोभसे जडीभूत हो जाता है वह संसारके चंबक प्रलोभनों में पडकर सुखमय जिन्दगी नहीं बितासकता उको बीच में ही आपत्तियां आ घेरती है ॥२६॥
लोहिण रहिउ पोउ गुरुसायरु दीसइ तरंतु जइ वि जडवायरु । लाहउ करइ सु पारु वि पावइ
वाणियाह धरिद्धि वि दावइ ॥३०॥ अर्थ-लोह रहित जहाज वडे भारी समुद्रको पार करता हुआ दीखाता है। यद्यपि उसमें जल-वायु अधिक हो तो भी जहाज-लाभ संपन्न भी होता है और, पार भी पाता है। एवं बनियों की धन संपत्ति को भी दिस्वाता है। दूसरे पक्ष में-लोभरहित व्यक्ति गुरुओंके प्रति आदर सहित भाव वाला होता हुआ संसार समुद्र से तैरता हुआ दीखाता है । यद्यपि जडवादी लोक अधिक होने पर भी अपनी धूनमें पका रहता है । वह व्यापारादि से लाभ भी पाता है और उसका उपयोग दानादि में करता हुआ पार भी पाता है तथा, व्यापारियों की धन वृद्धि रीति-नीतिको भी दीखाता है ।।३०॥
जो जणु सुहगुरु-दिट्ठिहि दिट्ठउ तसु किर काइ कारइ जमु रुट्ठउ ? । जसु परमेट्ठि-मंतु मणि सिवसइ
सो दुहमञ्जि कया वि न पइसइ ॥३१॥ - अर्थ-उपर बताये ढंगका जो सद्गृहस्थ जन सद्गुरु महाराज की दयादृष्टि से देखा पाहै उसका रुष्ट हुआ यमराज भी क्या कर सकता है ? । जिसके मनमें परमेष्ठी मंत्र है, वह दुःखोंमें कभी नहीं पडता। दूसरे पक्षमें-जिस लग्नमें गुरु की दृष्टि ठीक
शनिश्चर भी क्या कर सकता है ? कुछ नहीं ॥३१॥
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