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कालस्वरूपकुलकम् तह वि वत्त नवि पुच्छहि धम्मह जिण गुरु मिल्लहि कजिण दम्मह । फसु नवि पावहि माणुसजम्मह
दृरि होति ति जि सिवसम्मह ॥४॥ अर्थ--इस प्रकार के संसार स्वरूपके होनेपर भी धर्मकी बात भी कोई नहीं पूछाता है । द्रव्य के लिये देव और गुरुको भी लोग छोड़ देते हैं। मनुष्य जन्मके फलको नहीं पाते हैं। और मोक्ष सुखसे भी वे लोग दूर हो जाते हैं ॥४||
माहनिद्द जण सुत्त न जग्गइ तिण उछिवि सिवमग्ग न लग्गइ । जइ सुहत्थु कु वि गुरु जग्गावइ
तु वि तव्वयणु तासु नवि भावइ ॥५॥ अर्थ--मनुष्य मोह निद्रासे सोता हुआ नहीं जागता है। इसी लिये उठ करके मोक्षमार्गमें भी नहीं लगता है । यदि सुखके लिये या शुभ-हितके लिये कोई सुगुरु जगाते हैं, तो भी उनके वचन उसको नहीं रुचते हैं। है यह मोह की लीला ॥५॥
परमत्थिण ते सुत्त वि जग्गाह सुगुरु-वयणि जे उठेवि लग्गहिं । राग दोस मोह वि जे गंजहि
सिद्धि-पुरंधि ति निच्छइ भंजहि ॥६॥ अर्थ- सद्गुरु महाराजके वचनोंको सुनकर सुबिधिमार्ग में जो मनुष्य लगते हैं वे परमार्थसे द्रव्य निद्रासे सोते हुए भी जगते हैं। राग द्वष और मोह को वे जीतते हैं। एष निश्चय करके वे सिद्धि सुन्दरी को भोगते हैं ॥६॥
बहु य लोय लुचिसिर दीसहि पर राग-दोसिहिं सहुँ विलसहिं । पढ़हिं गुणहिं सत्थइ वक्खाणहि
परि परमत्थु तित्थू सु न जाणहि ॥७॥ अर्थ-- बहुतसे लोग लुञ्चित-मुण्डित सिर वाले साध्वाभास दिखाई देते हैं। परन्तु राग द्वषके साथ उनकी चेष्टायें दोखती हैं । वे लोग शास्त्रोंको पढ़ते हैं, गुणते हैं, व्याख्यान करते हैं । परन्तु उनमें रहे हुए परमार्थ-सत्तत्त्वको सच्चारित्रके अभावमें नहीं जानते हैं ॥७॥
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