________________
चर्चरी तं पकप्पि परिवन्निउ साहम्भियथलिय,
जहिं गय वंदणकज्जिण न सुदंसण मिलिय ॥३४॥ अर्थ---जहाँ मात्र साधु वेशधारी शिथिला चारि जिन मंदिरमें या जिन द्रव्यसे निर्मित मठमें रहते हैं और भारी आसातना करते हैं। उसको प्रकल्प श्रीनिशीथ अध्ययनमें साधर्मिक स्थली बताया है। वहीं वन्दनके लिये गये हुए व्यक्ति सुदर्शन सम्यकत्वको नहीं पाते । ३४। ओघ नियुक्ति आदिमें बताये हुए प्रकारसे अनायतन बताते हैं ...
ओहनिजुत्तावरसयपयरणदंसियउ, तमणाययणु जु दावइ दुक्खपसंसियउ । तहिं कारणि वि न जुत्तउ सावयजणगमणु,
तहिं वसति जे लिंगिय ताहि वि पयनमण ॥३५॥ अर्थ- ओधनियुक्ति आवश्यक सूत्र आदि सिद्धान्तों में बताया हुआ निश्राकृत चैत्यरूप अनायतन, प्रशंसा करनेवालोंको नरकादि गति संबंधि दुःखको दिखाता है । अतः वहां कारण होनेपर भी श्रावकोंको जाना युक्ता नहीं है । वहाँ जो साध्वाभास रहते हैं उनको पद बन्दन करना भी अयुक्त है । ३५ । वहाँ जानेमें जो दोष लगता है वह बताते हैं---
जाइज्जइ तहि वावि (ठाणि) ति नमियहिं इत्थु जइ, गय नमंतजण पावहि गुणगणबुढि जइ। गइहि तत्थति नमंतिहिं पाउ जु पावियइ, गमणु नमणु तहिं निच्छइ सगुणहिं वारियइ ॥३६ ॥
अर्थ - हाँ ? वहाँ जाया जाय ? और लिंगधारी चैत्य वासियोंको नमस्कार भी किया जाय ?? यदि गये हुए नमस्कार करनेवाले भाविक जन अपने गुण समुदायकी वृद्धि को पाते हों। परन्तु वहाँ जानेवाले और नमस्कारको करनेवाले यदि पापको ही पाते हो, तो सद्गुणी-गीतार्थों द्वारा वहाँ जाना और चैत्यवासियोंको नमना निश्चय करके रोका गया है । ३६ ।
चैत्य वासियोंके जैसे ही कितसेक वसतिवास करनेवाले भी भावसे अनायतन रूप हैं। अत: उनका अदर्शनीयत्व प्रतिपादन करते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org