Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 37
________________ उपदेश रसायन बहुय लोय रायंध स पिच्छहि जिणमुड़-पंकउ विरला वछहि । जणु जिणभवणि सुहत्थु जु आयउ मरइ सुतिक्कड क्खिहिं घायउ ||३४|| अर्थ-तरुणी वेश्याको रागान्ध होकर बहुत लोग देखते हैं और श्री जिन भगवान मुखकमलके तो फिर विरले ही दर्शन करना चाहते हैं । जो मनुष्य सुखके लिये श्री जिन मंदिर में आया था पर उसके तीख कटाक्ष बाणोंसे घायल होकर मारा जाता है || ३४ ॥ विरुद्धा नवि गाइज्जहिं हियइ घरं तिहि जिणगुण गिज्जहिं । पाड वि न हु अजुत बाइज्जहिं लइवुडिडउंडि-पमुह वारिज्जहिं ॥३५॥ राग अर्थ - विकारवर्द्धक विरुद्ध राग, भजन भी जिनमंदिरों में नहीं गाने चाहिये । हृदय में श्री जिन गुणोंको धारण करते हुए वैराग्य, शान्ति, ज्ञान-भक्ति- प्रधान भजन ही गाने चाहिये । मरणादि अवस्थासूचक पाड आदि देश-विदेश के बाजे भी नहीं बजाने चाहिये । "लइ वुडि डरंडि " -- प्रमुख भी रोक देने चाहिये ||३५|| उचिय थुत्ति थुयपाढ पढिज्जहिं जे सिद्धतिहिं सह संधिज्जहिं । तालारासु विदिति न स्यणिहिं दिवसि वि लउडारसु सहुँ पुरिसिहि ||३६|| ३० अर्थ - उचित स्तुति स्त्रोत्र पाठ ही पढ़ने चाहिये जो कि सिद्धान्तसे भी मेल रखते हों । तालियों को पीटते हुए - गरबे आदि भी रात्रि में नहीं देना चाहिये । पुरुषोंके साथ डोडियारास दिन में नहीं खेलना चाहिये, प्रमादसे मस्तक आदि में चोट लगने आदिकी सम्भावना होनेसे || ३६॥ धम्मिय नाडय पर नचिज्जहिं भरह - सगर निक्खमण कहिज्जहिं । चक्कवट्टि - बल - रायह चरियई नच्चिवि अंति हुँति पव्वइयई ||३७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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