Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 44
________________ उपदेश रसायन विणु कारणि सिद्धति निसिद्धउ वंदणाइकरणु वि जु पसिद्धउ । तसु गीयत्थ केम कारण विणु पइदिणु मिलहिं करहिं पयवंदणु ? ॥५८॥ अर्थ-सिद्धान्तमें विना कारण साध्वाभासों को वंदन करना आदि प्रसिद्ध रूपसे निषिद्ध किया हुआ है । उनके साथ गीतार्थ लोग अकारण कैसे मिलें ? और कैसे पदबंदन आदि करें ? अर्थात नहीं करना चाहिये ॥ ५८ ॥ जो असंघु सो संघु पयासइ जु ज्जि संघु तसु दृरिण नासइ । जिव रायंध जुवइदेहं गिहिं चंद कंद अणहुँति वि लक्खहिं ॥५९॥ अर्थ--प्रवाह पतित जन जो संघ गुणसे होन असंघ टोला मात्र है। उसको संघ रूप से प्रकाशित करता है और जो गुण संपन्न संघ है उससे दूर भागता है जिस प्रकार रांगाध लोग युवती स्त्रियोंके शरीर अन्त-नहीं होने वाले ( मुखको ) चन्द्र कुंद आदि को लक्षित-कल्पित करलेते हैं, वैसे ही गुण हीन टोलेमें असम्यकची लोग संघको कल्पना करते हैं॥५६॥ तिव दंसण. रायंध निरिक्खहि जं न अस्थि तं वत्थु-विवक्खहि । ते विवरियदिहि सिवसु क्खइ पावहि सुमिणि वि कह पञ्चक्खइ ॥६०॥ अर्थ-उसी प्रकार दर्शन-रागमें अन्धे अतत्पक्षपाती लोग जो चीज नहीं है उस वस्तु को देखते हैं, और उसकी व्याख्या भी करते हैं। ऐसे विपरीत दृष्टि वाले वे लोग प्रत्यक्ष तो दूरमें भी प्रस्वपर शिव सुखको कैसे पासकते हैं। सर्वथा नहीं ।। ६० ।। दम्म लिंति साहम्मिय-संतिय अवरुप्परु झगडंति न दिति य । ते विहिधम्मह खिस महंति य लोयमज्झि झगडंति करंति य ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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