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उपदेश रसायन तिव तिव धम्मु कहिंति सयाणा जिव ते मरिवि हुँति सरराणा । चित्तासोय करंत ठाहिय
जण तहिं कय हवंति नट्ठाहिय ॥३१॥ अर्थ-सज्जन गीतार्थ पुरुष वैसे-वैसे धर्मको फरमाते हैं जिसको आचरण करके मरके भी मनुष्य देव-देवेन्द्र आदि हो जाते हैं । चैत्र और आश्विन मासमें श्रावक जन अष्टाह्निका -शाश्वतयात्रा करते हैं, जिसके करनेसे वे नष्ट चिन्तावाले व्याधिरहित हो जाते हैं ॥३१॥
जिव कल्लाणयपुट्टिहि किज्जहिं तिव करिति सावय जहसत्तिहिं । जा लहुडी सा नचाविज्जहिं
वड्डी सुगुरु-वयणि आणिज्जइ ॥३२॥ अर्थ-श्री जिनेश्वर देवोंके जन्म कल्याणक आदिके पीछे देवता अष्टाह्निक महिमा नंदीश्वर द्वीपमें करते हैं । वैसे श्रावक भी यथाशक्ति अष्टाह्निकादिक महोत्सव करते हैं। उसमें जो लड़कीये नाचनेवाली होती हैं वे नचाई जाती हैं। सुगुरुकी आज्ञासे बड़ी नाचनेवाली लानी हो तो लानी चाहिये ॥३२॥
जोव्वणस्थ जो नचइ दारी सा लग्गइ सावयह वियारी । तिहि निमित्तु सावयसुय फट्टहिं
जंतिहि दिवसिहिं धम्मह फिट्टहिं ॥३३॥ अर्थ-युवावस्थावाली जो वेश्या नाचती है वह श्रावकोंको ठगने लगती है । उसके लिये श्रावकोंके लड़के परस्परमें विरक्त चित्तवाले हो जाते हैं लड़ते हैं । एवं कुछ दिनोंके बाद धर्मसे भी भ्रष्ट हो जाते हैं ॥३३॥ १-आजकल जैनेतर मन्दिरोंमें जैसे वेश्याएँ नाचती हैं वैसे हो चैत्यवासियोंके जमानेमें जैन मन्दिरोंमें
नाचती थीं । जैन शास्त्रोंमें मन्दिरमें नृत्य निषेध नहीं होनेसे प्रस्तुत प्रवृत्ति होती थी। इसमें जो कुप्रवृत्ति थी उसे रोकनेको ऊपरका श्लोक बना प्रतीत होता है। छोटी बच्चियां यदि नाचें भी तो विकारके बजाय भक्तिभाव ही बढ़ता है । तरुस्त्री वेश्याओंका नाच-जो कि उस समय प्रस्तुत था उसका विकारवर्द्धक होनेसे निषेध कर दिया है, आजकल तो वेश्या-नृत्य ही बन्द है ।
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