Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 41
________________ 30 उपदेश रसायन जइ ति वि आवहि तो संभासइ जुत्तु तदुत्तु वि निसुणिवि तूसइ ॥४८॥ अर्थ-साध्वाभासोंकी कुचेष्टा होने पर भी वे युगप्रधान गुरु उनके लिये रोक नहीं करते। शक्तिके रहते हुए भी क्षमा को नहीं छोड़ते, और न उन मोड़ोकी ही दूषित बननेकी चेष्टा करते हैं । अगर वे लोग सामने आते भी हैं तो उनके साथ सम्भाषण करते हैं। उन दुष्टों की कही हुई, योग्य बात को भी सुन खुश होते हैं । अर्थात् युगप्रधान सर्वत्र सम परिणामसे सारग्राही होते हैं ॥४॥ अप्पु अणप्पु वि न सु बहु मन्नइ । थोवगुणु वि परु पिच्छवि वन्नइ । एइ वि जइ तरंति भवसायरु ता अणुवत्तउ निच्चु वि सायरु ॥४९॥ अर्थ- अनल्प गुण वाली भी अपनी आत्मा को जो बहुत नहीं मानते। दसरेके थोड़े गुण को भी देखकर जो-तारीफ करने लग जाते हैं। वे ऐसा शोचते रहते हैं, कि यदि ये लोग भवसागर पार करें ऐसा मैं हमेशा देखता रहूं तो बड़ा ही अच्छा हो। ऐसे गुरु ही युगप्रधान हो सकते हैं। जुगुपहाणु गुरु इउ परि चिंतइ तं-मूलि वि तं-मण सु निकितइ । लोउ लोयवत्ताणइ भग्गउ तासु न दंसणु पिच्छइ नग्गउ ॥५०॥ अर्थ-युगप्रधान गुरु तो इस प्रकार परहित चिंतन करते हैं, और उसके पासमें वर्तमान दुष्ट चित्त वाले व्यक्ति उन्हींके मन को काटते रहते हैं। अर्थात् तन्मूलक ज्ञानदर्शन चारित्र को झठे आक्षेपों द्वारा मलिन बनाते हैं। भोले लोक भी तथाविध दुष्टात्माओं की बातों को सुनकर भग्न परिणामी होकर उन गुरुदेवके दशनसे बंचित रहते हैं, अरे ? अपने आगेके भव को भी नहीं देखते हैं। बाकईमें नंगे दुष्ट आदमी ऐसे ही होते हैं ॥५०॥ इस प्रकार युगप्रधान गुरुके स्वरुप को बताये बाद उनके प्रवाह पतित लोगोंकी बानी बाणी को बताये हैं इह गुरु केहि वि लोइहि वन्निउ । तु वि अम्हारइ संधि न मन्निउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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