Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah
Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 40
________________ उपदेश रसायन अर्थ- जो युगप्रधान गुरु पूर्व सुगुरुओंकी आज्ञाको सदा हृदयमें रखते हैं। तत्त्वार्थ में जिनका चित्त हमेशा प्रविष्ट रहता है । जिनको न्यायमें कोई भी नहीं जीत सकता। जो परवादियोंके भयसे भागते भी नहीं हैं ॥४४॥ जसु चरिइण गुणिचित्तु चमक्कइ तसु जु न सहइ सु दृरि निलुक्कइ जसु परिचित करहिं जे देवय तस समचित्त ति थोवा सेवय ॥४५॥ अर्थ-जिनके अद्भुत चरित्रसे गुणिजनोंका चित्त चमत्कृत होते हैं । उनको जो नहीं मानते हैं, ऐसे असहिष्णु लोग दूरसे ही लुप्त हो जाते हैं। जिनकी विपत्ति आदिमें देवता भी परिचिंता करते हैं। उनके समचित्त वाले वे थोड़े ही सेवक होते हैं ॥४॥ तसु निसि दिवसि चिंत इह (य) वट्टइ कहिं वि ठावि जिणवयणु फिट्टइ भूरि भवंता दीसहि वोडा जे स पसंसहि ते परि थोडा ॥४६॥ अर्थ-- उन युगप्रधान गुरुके चित्तमें रात दिन यही चिन्ता रहती है कि किसी भी स्थानमें जिन शासनकी हीलना तो नहीं होती ? भटकते हुए बहुतसे मोड़े दीखते हैं पर ऐसे युगप्रधान गुरुकी स्तुति-प्रशंसा करनेवाले बहुत थोड़े ही हैं ॥४६॥ पिच्छहि ते तसु पइ पइ पोणिउ तसु असंतु दुहु ढोयहिं आणिउं । धम्मपसाइण सो परि छुट्टइ सव्वत्थ वि सुहकजि पयट्टइ। ॥४७॥ अर्थ-वैसे मोड़े-साध्वाभांस उन युगप्रधान गुरुके पद पदमें छिद्र ढूंढते रहते हैं और विना हुए दुःखों को उनके लिये ढो-ढो कर लाते हैं। किन्तु धर्मके प्रसादसे वे भली भांति पीड़ासे दूर रहते हैं। एवं शुभकार्यों में सदा सर्वत्र प्रवृति करते रहते हैं ॥४७।। तह विहु ताहि वि सो नवि रुसइ खम न सु मिल्लइ नवि ते दूसइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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