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उपदेश रसायन अर्थ- धार्मिक भावना परक नाटक खेलने हों तो खेलने चाहिये। भरत चक्रवर्ती सगर चक्रवर्ती आदिके निष्क्रमण-दीक्षा आदि भाव, नाटकोंमें कहने चाहिये। दूसरे भी चक्रवर्ती बलदेव दशार्णभद्र आदि राजा लोगोंके चरित नाटकों में बताने चाहिये । अधिक क्या ? वे ही नाटक होने चाहिये जिनके अन्तमें दीक्षाके भाव हों ॥३७॥
हास खिड्ड हुडु वि वज्जिज्जहिं सहु पुरिसेहि वि केलिन किन्जहि । रतिहिं जुवइपवेसु निवारहिं
न्हवणु नंदि न पइट्ट करावहिं ॥३८॥ अर्थ- मंदिर में हँसी मजाक-क्रीड़ा कुतूहल-होड शर्त आदिका भी त्याग करना चाहिये। पुरुषोंके साथ क्रीडा नहीं करना चाहिये। रात्रिमें स्त्रियोंका प्रवेश रोक देते हैं और स्नात्र-नंदिस्थापना एवं प्रतिष्ठाको नहीं कराते हैं ॥३८॥
माहमाल - जलकीलंदोलय ति वि अजुत्त न करंति गुणालय । बलि अत्थमियइ दिण्यरि न धरहिं
घरकज्जइं पुण जिणहरि न करहिं ॥३९॥ अर्थ- माघ माला--जलकेलि--देवताओंके हिंडोल आदि सभी अनागमिक-अयुक्त काम गुणवान् श्रावक लोग जिनमंदिरमें नहीं करते हैं। सूर्यके अस्त होनेपर बलि-नैवेद्य भी नहीं चढ़ाते हैं । घर सम्बन्धी कामोंको भी मंदिरमें नहीं करते हैं ॥३॥ चैत्य सम्बन्धी विधिके बताये बाद विशिष्टाचार्यके स्वरूपको बताते हैं:
सूरि ति विहिजिणहरि वक्खाणहिं तहिं जे अविहि उत्सुत्त न आणहिं नंदि - पइह ते अहिगारिय
सूरि ति जे तदवरि ते वारिय ॥४०॥ अर्थ-- वेही आचार्य आचार्यपदके योग्य हैं जो विधि जिन चैत्यमें व्याख्यान देते हैं, उसमें अविधि या सूत्र-विरुद्ध कोई बात नहीं लाते । वे ही नंदिस्थापनाके एवं मूर्ति प्रतिष्ठाके अधिकारी होते हैं। उनसे भिन्न जो आचार्य नामधारी भी हैं उनका निवारण करना चाहिये ॥४०॥
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