________________
१४
चर्चरी
वसहिहिं बसहिं बहुत्त उतसुत्त पयंपिरइ, करहिं किरिय जणरंजण निच्चु वि दुक्करय । परि सम्पत्तविहीण ति हीणिहि सेवियहिं,
तिहिं सहुं दंसणु सग्गुण कुणहिं न पावियहिं ॥ ३७ ॥
अर्थ -- अत्यन्त उत्सूत्रको बोलनेवाले कई वसति में भी रहते हैं । जन रंजनार्थ हमेशा दुष्कर - कठोर क्रियाको भी करते हैं । परन्तु सम्यकत्व से हीन होने से वे हीन सम्यकत्व विकलों द्वारा ही से वे माने जाते हैं । इस लिये सद्गुणी - गीतार्थानुयायी सच्चे सम्यकत्व रसिक भव्यात्मा उन भाव पापाचारियोंके साथ दर्शन - सद्गुरु सम्बन्धी व्यवहार नहीं करते हैं । ३७ ।
अनिश्रा चैत्य निश्राचेत्य साध्वाभास वासित अनयतन चैत्य -- इन तीनों चैत्यों में गमनादि विषय विभागको बताते हैं ।
उस्सगिण विहिचेइउ पढमु निस्साकडु अववाइण दुइउ जहि किर लिंगिय निवसहि तमिह अणाययणु, तहि निसिद्धु सिद्धंति वि धम्मियजणगमणु ॥ ३८ ॥
अर्थ - उत्सर्ग रूपसे विधि चैत्यको जाने योग्य प्रथम प्रकाशित किया है। अपवाद रूपसे निश्राकृत -- जिसमें कि ज्ञाति गोत्र गच्छादिकी निश्रा रहती है, पर जहाँ चैत्य वासी नहीं रहते हैं, ऐसे― चैत्यको जाने योग्य दूसरा दिखाया है । जहाँ लिंगधारी साध्वाभास रहते हैं उसको यहाँ प्रवचनमें अनायतन माना है, और वहांपर धार्मिक जनोंको जानेके लिये भी सिद्धान्त में निषेध किया गया है । ३८ ।
पयासियउ
"
निंदंसियउ ।
इसी लिये कहते हैं-
विणु कारणि तहि गमणु न कुणहि जि सुविहियइ, तिविहु जु चेइउ कहइ सु साहु वि मन्नियइ | त पुण दुबिहु कहेइ जु सो अवगन्नियइ, तेण लोउ इह सयलु वि भोलउ धंधियइ ||३९||
अर्थ - विना कारण वहाँ सुविहित साधु एवं सदाचारी श्रावक गमन नहीं करते हैं । अनिश्राकृत १ निश्राकृत २ और अनायतन ३ रूप तीन प्रकारके चैत्योंको जो कहते हैंप्रतिपादन करते हैं वे साधु भी मानने चाहिये दूसरे नहीं । उस चैत्यको जो दो प्रकार ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org