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चर्चरी
ठोवि (णि) ठावि (णि) विहिपक्खु वि जिण अप्पडिखलिउ, फूडू पयडिउ निक्कवडिण परु अप्पर कलिउ ॥४२॥
अर्थ - एक साथ सारी विद्यायें जिनके मुख कमलमें स्थित हो गई है। जिनको मिथ्या दृष्टि लोग भी सेवक भावसे वन्दन करते हैं। जिनने ठाम ठाम विधि पक्षको अप्रति स्खलिततया स्फट रूपसे परमत और स्वमतको निष्कपट भावसे जानकर प्रकाशित एवं प्रचारित किया है | ||४२ ||
पयपंकउ पुन्निहि, पाविउ जण भमरु,
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सुद्धनाण - महुपाणु करंतउ हुइ अमरु | सत्थु हुन्तु सो जाणइ सत्थ पसत्य सहि, कहि अव उवमिज्जइ केण समाणु सहि ? ॥४३॥
अर्थ- उन श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराजके चरण कमलको भव्यजन रूप भमरा बड़े पुण्य से प्राप्त करके शुद्ध ज्ञान सब मधुपानको करता हुआ अमर हो जाता है शुद्ध ज्ञानको पानेसे स्वस्वा होता हुआ समस्त पवित्र शास्त्रों को भी वह जानता है । हे सखे ऐसे परमोपकारी अनुपम गुरुदेवकी जिसके साथ उपमा दी जाय ? ॥४३॥ गुरु परंपरा बताते हैं
वज्रमाणसूरिसीसु जिणेसरसूरिवरु,
तासु सीसु जिणचन्दजईसरु जुगपवरु | अभयदेउ मुणिनाहु नवंगह वित्तिकरु,
तसु पय-पंकय भसलु सलक्खणु चरणकरु ||४४ ||
अर्थ - श्री वर्द्धमान सूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज हुए । उनके शिष्य युगप्रधान यतीश्वर श्रीजिनचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज हुए । उनके शिस्य नवांग वृत्तिकार मुनिनाथ श्रीअभयदेव सूरीश्वरजी महाराज हुए । उन्हीं गुरुदेव के चरण कमलों में भमरेके समान सुलक्षण सम्पन्न कर चरणादि अंगों पांगवाले श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज हुए ||४४||
सिरिजिणवल्लहु
दुल्लहु निप्पुन्नहं जगह,
हउं न अंतु परियाणउं अहू जण ? तग्गुणह । सुद्धधम्म हउं ठाविउ जुगपवरागमिण, एउ वि मई परियाणिउ तग्गुण-संकमिण || ४५||
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