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उपदेश रसायन
धम्मिय जणु सत्थेण वियारइ सु वि ते धम्मिय सत्थि वियारइ । तव्विहलोइहि सो परियरियउ परिहरियउ ||२०|
तर गीयत्थिहि सो
अर्थ - धार्मिक जन उत्सूत्रभाषकों की प्रवृत्तिको शास्त्रोंसे विचारते हैं - अयोग्य बताते हैं, और वह उत्सूत्र भाषक उन धार्मिक जनों को शस्त्रोंसे विचारते हैं-मारने को दौड़ते हैं । इस प्रकार उच्छृङ्खल प्रवृत्तिवाले उत्सूत्र आचरण करनेवाले लोगों से वह अपना लिया जाता है । इसलिये गीतार्थ महापुरुष उसका त्याग कर देते हैं ||२०|| जो गीयत्थु सु करइ न मच्छरु
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सुवि जीवंतु न मिल्लइ मच्छरु | सुद्धइ धम्मि जु लग्गइ विरलउ
संघि सुबज्यु कहिजइ जवलउ ||२१||
अर्थ - जो गीतार्थ होता है, वह मात्सर्य भावको नहीं रखता और जो वह मलादि बाह्य प्रवृत्तिधारक उत्सूत्राचारी गीतार्थोके प्रति यावज्जीवन मात्सर्यको नहीं छोड़ता है । कोई विरला पुरुष ही शुद्ध धर्म में प्रवृत्तमान होता है । वह भी प्रवाह पतित जन समूह द्वारा चाण्डाल आदिके जैसे जुदा संघ बाह्य माना जाता है ॥२१॥
पइ पइ पाणिउ तसु वाहिज्जइ उवसमि थक्कु सो वि वाहिज्जइ । तरसावय सावय जिव लग्गहिं धम्मियलोयह
च्छिड्डइ मग्गहिं ॥२२॥
अर्थ- शुद्ध विधि मार्ग प्रवृत्त धर्मात्मा पुरुषके पद-पदपर छिद्र ढूँढ़े जाते हैं और शान्त वृत्ति रखते हुए भी वह उस प्रवाह पतित दुष्ट संघके द्वारा सताया जाता है। दुष्ट संघ के श्रावक श्वापद - जङ्गली जानवरोंके जैसे पीछे लगते हैं । धार्मिक लोगोंके छिद्रोंको ढूँढ़ते रहते हैं ||२२||
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अविहिकरेas
विहिचेईहरि करहि उवाय बहुत्ति ति लेवइ ।
जइ विहिजिणहरि अविहि पयट्टइ ता घिउ सत्तुयमज्झि पलुइ ॥२३॥
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