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चर्चरी खज्जइ सावएहि सुबहुत्तिहिं भिज्जइ सामएहिं गुरुगत्तिहिं । वाग्घसंघ-भय पडइ सु खड्डह
पडियउ होइ सु कूडर हड्डह ॥१४॥ अर्थ-लोक प्रवाह रूप कुपथमें पड़ा हुआ वह अस्थिर विचारों वाला मुग्ध जीव बहुतसे नामधारी श्रावकों द्वारा धनसे खाया जाता है। सामद --कोमल पापोपदेश देनेवाले कुगुरुओंसे भेदा जाता है-कुवासना वासित किया जाता है। महा भयोत्पादक बाघके जैसे निर्गुण-दुष्ट बहुजनोंके संघके भयसे अविधि आचरणके बाद नरक रूप खड्डे में गिरता है। पतित होनेपर निर्गण जीवन होनेसे केवल हड्डियोंका ढेर मात्र रह जाता है। अर्थान्तर पक्षमें-सावएहिं - श्वापद जंगली जानवरोंसे खाया जाता है। सामरहिं गुरुगत्तिहिं - गुरूमात्र हाथियोंसे भेदा जाता है। खड्डे में गिरकर केवल हड्डियोंका ढेर हो जाता है ॥१४॥
तेण जम्मु इहु नियउ निरत्थर नियमत्थइ देविणु पुल्हत्थउ । जइ किर तिण कुलि जम्मु वि पाविउ
जाइत्तु तु वि गुण न स दाविउ ॥१५॥ अर्थ-उस कायर एवं अस्थिर स्वभावी पुरुपने इस संसारमें सद्धर्मकी विकलतासे अपना माथा ठोककर अपने जन्मको निरर्थक बना दिया। यदि उसने अच्छे कुलमें जातियुक्त-सुन्दरतादि सम्पन्न जन्म भी पाया तो भी विधिमार्ग-सद्धर्माचिरणरूप लोकोत्तर गुणको नहीं दिखाया ॥१॥
जइ किर धरिससयाउ वि होई पाउ इक्कु परिसंचइ सोइ । कह वि सो वि जिदिक्ख पवज्जइ
तह वि न सावज्जई परिवज्जइ ॥१६॥ अर्थ-तथोक्त अस्थिर स्वभाव वाला पुरुष यदि सौ वर्षकी आयुष्य वाला हो तो भी वह केवल पापका ही संचय करता रहता है। किसी भी तरहसे अगर वह नी दीक्षाको ले भी लेता है तो भी सावद्य सपाप कार्योको नहीं छोड़ता है ।।१६।।
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