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4 , २ . चर्चरो
अप्पु न मुणहि न परु परियाणहिं
सुखलच्छि सुमिणे वि न माणहिं ॥९॥ अर्थ-उस लोक प्रवाह नदीमें पड़े हुए मनुष्य कदाग्रहोंसे खाये जाते हैं। अर्थात्दुराग्रहाधीन हो जाते हैं। अहंकारी कुगुरुओंके दृढ़ उत्सूत्र भाषण आचरण रूप दुराग्रहोंसे भेदे जाते हैं-अर्थात् अविधि मागमें कासित किये जाते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व मूर्छित हो जानेसे वे न आत्माको न पर को ही जान सकते हैं, एवं स्वप्न में भी मोक्षादि सुख लक्ष्मीको नहीं भोगते हैं । द्रव्य नदी पक्षमें - कुत्सित जलचर विशेष खाते हैं मगर आदि की बड़ी दाढ़ोंके अग्रभागसे विदारे जाते हैं मूच्छित हो जाते हैं आदि ॥६॥
उन लोक प्रवाह नदीमें पड़े प्राणियोंके लिये किसी सत्पुरुष विशेषकी चेष्टा बताते हैं
गुरु-पवहण जइ किर कु वि याणइ परउवयाररसिय भड्डाणइ। ता गयचेयण ते जण पिच्छइ
किंचि सजीउ सो वि तं निच्छइ ॥१०॥ अर्थ-लोक प्रवाह नदो में पड़े जीवों के उद्धारके लिये यदि कोई परोपकार रसिक सत्पुरुष श्री सद्गुरू महाराज रूप जहाज को पतित प्राणियों की अनिच्छा रहते हुए-हठात् जबरदस्ती भी ले आता है, उस समय वह उन चेतना विकल मूच्छित जनों को देखता है। उनमें अगर कोई कुछ सजीव होता है वह भी अपने कमे दोष से उस सद्गुरु महाराज रूप जहाज को नहीं चाहता अर्थात् आज्ञा पालन रूप सुविहित विधि मार्ग में प्रवृत्ति नहीं करता । द्रव्य नदी पक्ष में अर्थ स्पष्ट ही है ॥ १० ॥
कट्टिण कु वि जइ आरोविज्जइ तु वि तिण नीसत्तिण रोविज्जइ । कच्छ ज दिज्जइ किर रोवंतह
सा असुइहि भरियइ पिच्छंतह ॥११॥ अर्थ-यदि परोपकार रसिक सत्पुरुष कष्ट करके भी लोक प्रवाह नदी पतित जीव को श्रीसद्गुरु महाराज रूप जहाजमें आरोपित करे तो भी निःसत्वता-निरवल चित्तवाला होनेसे वह रोने लग जाता है। यदि रोते हुए को रोकने के लिये मजबूती की लंगौट-दी जायबंधाई जाय तो उसको भी वह अंशुची से देने वाले के देखते हुए ही भर देता है-अर्थात्
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