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चर्चरी इय बहुविह उस्सुत्तइ जेण निसेहियइ, विहिजिणहरि सुपमथिहि लिहिवि निदंसियइ । जुगपहाणु जिणवल्लहु सो किं न मन्नियइ,
सुगुरु जासु सन्नाणु सनिउणिहि वन्नियइ ॥२८॥ अर्थ-इस प्रकार बहुतसे उत्सूत्र-अविधि अनुष्ठान विधि जिन चैत्योंमें जिनने निषिद्ध कर दिये, एवं चित्तोड-नरवर-नागपुर-मरुपुरादि नगरोंके विधि चैत्योंमें सुप्रशस्तियों में लिखा लिखाकर प्रचारित करा दिये हैं। जिनका विशिष्ट आगम संयत ज्ञान सिद्धान्तवेदि निपुण महापुरुषों द्वारा प्रशंसित किया गया है। ऐसे युग प्रधान सुगुरु श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज कैसे न माने जायें ? अवश्यमेव मानने चाहिये ॥२८॥
लविमित्तु वि उस्सुत्त जु इत्थु पयंपियइ, तसु विवाउ अइथोउ वि केवलि दंसियइ । ताई जि जे उस्सुत्तइं कियइ निरंतरइ,
ताह दुरक जे हुति ति भूरि भवंतरइ ॥२९॥ अर्थ-लव मात्र भी जो उत्सुत्र यहां बोला जाता है उसका विपाक केवलि भगवान द्वारा बहुत अधिक दिखाया जाता है। उन्हों उत्सूत्र भाषणोंको एवं आचरणोंको जो निरंतर करते हैं, उनके लिये अनन्त भावान्तरोंमें भोगने योग्य दुःख होते हैं ।। २६ ।। उत्सूत्र भाषकोंकी कुछ चेष्टायें बताते है.--.
अपरिक्खियसुयनिहसिहि नियमइगब्बियहि, लोयपवाहपयट्टिहिं नामिण सविहियइं। अवरुप्परमच्छरिण निदंसियसगुणिहिं,
पूआविज्जइ अप्पर जिणु जिव निग्घिणिहिं ॥३०॥ अर्थ-श्रुतज्ञानियोंकी कसौटो द्वारा अपरीक्षित, निज मतिगर्वित, लोक प्रवाहमें प्रवृत, नाममात्रके सुविहित, शुद्ध चारित्रियोंके लिये तो कहना ही क्या ? आपसके शिथिलाचारियोंमें भी परस्पर मत्सरता रखते हुए अपने गुणोंको दिखानेवाले ऐसे निपुण साध्वाभास लोगों द्वारा दूसरोंकी निन्दा करके आत्माको पुजाते हैं ।। ३१ ।।
इह अणुसोयपयट्टह संख न कु वि करइ, भवसायरि ति पडंति न इक्कु वि उत्तरइ ।
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